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________________ १९४ गो० कर्मकाण्डे उज्जोओ तमतमगे सुरणारयमिच्छगे असंपत्तं । तिरियदुर्ग सेसा पुण चदुगदिमिच्छे किलिडे य ॥१६९॥ उद्योतस्तमस्तमके सुरनारकमिथ्यादृष्टावसंप्राप्तं । तिर्यग्द्विकं शेषाः पुनश्चतुर्गतिमिथ्यादृष्टौ क्लिष्टे च ॥ तमस्तमके सप्तमनरकभूमियोपशमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टिविशुद्धियुतनारकनोळुद्योत. नामकम्म तीवानुभागमक्कुमेक दोडे अतिविशुद्धंगुद्योतनामकर्मबंध मिल्लप्पुरिदं । मत्तं सुरनारकमिथ्यादृष्टिजीवंगळोल असंप्राप्नसृपाटिकासंहननमुं तिय॑ग्द्विकमेंब त्रिप्रकृतिगळु तीवानुभागगळप्पुवु। शेषाष्टोत्तरषष्टिप्रकृतिगळु ६८। पुनः मते संक्लिष्टचतुर्गतिमिथ्यादृष्टिजीवनोळु तीवानुभागंगळप्पु॥ यितुत्कृष्टानुभागमं पेन्दनंतरं जघन्यानुभागबंधस्वामिगळं पेळ्दपरु : वण्णचउक्कमसत्थं उवघादो खवगपादि पणवीसं । तीसाणमवरबंधो सगसगवोच्छेदठाणम्मि ॥१७०॥ वर्णचतुष्कमशस्तं उपघातः सपकघाति पंचविंशतिः त्रिंशतामवरबंधः स्वस्वव्युच्छित्तिस्थाने ॥ १५ अप्रशस्तवर्णचतुष्कमुं उपघातनाममुं ज्ञानावरणपंचकमुमन्तरायपंचकमुं दर्शनावरणचतुष्क, निद्रयं प्रचलयं हास्यमुं रतियं भयमुं जुगुप्सयं पुंवेदमुं संज्वलन चतुष्कर्म ब क्षपकरुगळ पंचविंशतिपातिगळं कूडि ३० मूवत्तुं प्रकृतिगळ जघन्यानुभागबंधं स्वस्वबंधन्युच्छित्तिस्थानदोळेयककुं। अशु० व ४ उ १ णा ५ वि ५८ ४ नि१ प्र१ हा १ र १। भ १ जु ११ सं४ कूडि ३०॥ तमस्तमके सप्तमनरके उपशमसम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यादृष्टिविशुद्धनारके उद्योतः तीव्रानुभागो भवति २० अतिविशुद्धस्य तदबन्धात् । पुनः सुरनारकमिथ्यादृष्टी असंप्राप्तसृपाटिकासंहननं तिर्यद्विकं च । शेषाः अष्टषष्टिः ६८ पुनः संक्लिष्टचातुर्गतिकमिथ्यादृष्टौ ॥१६९।। अथ जघन्यानुभागबन्धकानाह अप्रशस्तवर्णचतुष्कं उपघातः पञ्चज्ञानावरणपश्चान्तरायचक्षुर्दर्शनावरणनिद्राप्रचलाहास्यरतिभयजुगुप्सापुंवेदचतुःसंज्वलनाश्चेति त्रिंशतः जघन्यानुभागः स्वस्वबन्धम्युच्छित्तिस्थाने भवति ।।१७०॥ सातवें नरकमें उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि विशुद्ध नारकी उद्योतका २५ तीव्र अनुभागबन्ध करता है, क्योंकि अतिविशुद्धके उद्योत प्रकृतिका बन्ध नहीं होता। तथा मिथ्यादृष्टि देव और नारकीके असंप्राप्तामृपाटिका संहनन तियंचगति और तियंचगत्यानुपूर्वीका तीव्र अनुभागबन्ध होता है। शेष अड़सठ प्रकृतियोंका तीव्र अनुभागबन्ध चारो गतिके संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादष्टि जीव करते हैं ॥१६९।। आगे जघन्य अनुभागबन्ध करनेवालोंको कहते हैं अप्रशस्त वर्णादि चार, उपघात, पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, चार दर्शनावरण, निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, चार संज्वलन कषाय इन तीस प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके स्थानमें होता है अर्थात् जहाँ इनकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वहीं जघन्य अनुभागबन्ध होता है ।।१७०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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