________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उबघादहीणतीसे अपुत्रकरणस्स उच्चजससादे ।
सम्मेलिदे हवंति हु खवगस्सवसेसबत्तीसा ॥१६७॥ उपघातहीनत्रिंशत् अपूर्वकरणस्योच्चयशः शातान् । सम्मिलिते भवंति खलु क्षपकस्याव. शेषद्वात्रिंशत् ॥
अपूर्वकरणस्य अपूर्वकरणक्षपान उपघातनामकर्मज्जितषष्ठभागव्युच्छिन्नत्रिंशत्प्र- ५ कृतिगळु 'छठे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमणपंचिदी। तेजदु हारदु' इत्यादिगळनू सूक्ष्मसापरायन उच्चैगर्गोत्रमं यशस्कोतियुमं सातवेदनीयमुमं कूडुत्तिरलु अवशेषद्वात्रिंशत्प्रकृतिगळु क्षपकनोळु तीब्रानुभागंगळप्पुवेंदु पेन्द प्रकृति गळप्पुवु॥
मिच्छस्संतिमणवयं णरतिरियाऊणि वामणरतिरिए ।
एइंदिय आदावं थावरणामं च सुरमिच्छे ॥१६८॥ मिथ्यादृष्टयंतिमनवकं नरतिय्यंगायुमिनरतिरश्चि । एकेंद्रियमातपस्थावरनाम च सुरमिथ्यादृष्टौ॥ ____ अप्रशस्तप्रकृतिगळु अशुभवर्णचतुष्कयुक्तंगळ ८२ प्रशस्त प्रकृतिगळ ४ कूडि ८६ प्रकृतिगळ्गे मिथ्यादृष्टिजीवने तीव्रानुभागमं माळकुमाव प्रकृतिगळ्गाव मिथ्यादृष्टि माकुमें वोडे मिथ्यादृष्टयन्तिमनवकं सूक्ष्मत्रयविकलेन्द्रिययनरकद्विकनरकायुष्यमेंबी मिथ्यादृष्टयंतिम नवक, १५ संक्लिष्टरोळु मनुष्यतिय॑गायुयं विशुद्धमिथ्यादृष्टि मनुष्यतियंचरोळु कूडि ११ प्रकृतिगळ तोवानुभागंगळप्पुवु । एकेंद्रियजातिनाम, स्थावरनाममुं संक्लिष्टरोळु आतपं विशुद्धरोकिन्तु प्रकृतित्रयं स्वस्थिति षण्मासावशेषमागुत्तं विरलु सुरमिथ्यादृष्टियोळु तोबानुभागंगळप्पुवु ॥
अपूर्वकरणक्षपकस्य उपघातवजितषष्ठभागव्युच्छित्तित्रिंशति सूक्ष्मसांपरायस्य उच्चर्गोत्रयशस्कीतिसातवेदनीयेषु मिलितेषु ताः अवशेषद्वात्रिंशत्प्रकृतयो भवन्ति ॥१६७।।
अप्रशस्तद्वयशीतिः आतपादयश्चतस्रश्च मिथ्यादृष्टावेव तीवानुभागा उक्ताः। तत्र सूक्ष्मत्रयादिमिथ्यादृष्टयंतिमनवकं नरतिरिश्चोः संक्लिष्टयोः नरतिर्यगायुषी च विशुद्धयोर्भवन्ति । एकेन्द्रियं स्थावरं च संक्लिष्टे आतपस्तु विशुद्ध स्वस्थितिषण्मासावशेषे सुरमिथ्यादृष्टौ भवन्ति ।।१६८॥
क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानके छठे भागमें जिन तीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कही है उनमें-से उपघातको छोड़कर उनतीस तथा सूक्ष्म साम्परायमें बँधनेवाली उच्चगोत्र, यशः- २५ कीति और सातावेदनीय मिलकर उक्त बत्तीस प्रकृतियाँ होती हैं ॥१६७।।
बयासी अप्रशस्त प्रकृति और आतप, उद्योत, मनुष्यायु, तिर्यंचायु इन छियासीका तीव्र अनुभाग सहित बन्ध मिथ्यादृष्टिके ही होता है। उनमेंसे जिन सोलह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति मिध्यादृष्टिके कही है उनमें से सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण आदि अन्तकी नौ प्रकृतियोंका तीव्र अनुभागबन्ध संक्लेश परिणामयुक्त मनुष्य और तिथंच करते हैं। और मनुष्यायु ३० तियंचायुका तीव्र अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामवाले देव मनुष्य या तिथंच करते हैं तथा एकेन्द्रिय, स्थावरका संक्लेश परिणामवाला और आतपका विशुद्ध परिणामवाला मिथ्यादृष्टि देव अपनी आयुके छह मास शेष रहनेपर तीव्र अनुभाग बन्ध करता है ।।१६८॥
क-२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org