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गो० कर्मकाण्डे सुरणिरये उज्जोवोरालदुर्ग तमतमम्मि तिरियदुगं ।
णीचं च तिगदिमज्झिमपरिणामे थावरेयक्खं ॥१७३।। सुरनारकेषूद्योतः औदारिकद्विकं तमस्तमे तियंग्द्विकं । नीचं च त्रिगतिमध्यमपरिणामे स्थावरैकाक्षं॥
सुरनारकरोळुयोतमुमौदारिकद्विक, जघन्यानुभागंगळप्पुवल्लि देवक्कळतिविशुद्धरादोडुद्योतनाममं मोवल्गे कटुवरल्लदु कारणदिदमुद्योतनाम प्रशस्तप्रकृतियप्पुरिदं सुरनारकरुगलु संक्लिष्टरुगळे जघन्यानुभागमनदक्के माळ्पर। तिय॑द्विकं नोचैर्गोत्रमुहैब प्रकृतित्रयं सप्तमपृथ्विय नारकनोळ विशुद्धनोळ जघन्यानुभागमक्कं। स्थावरनाममुमेकेंद्रियजातिनाममुमें बेरडुं
प्रकृतिगळ नरकगतिरहित शेषत्रिगतिजीवंगळ तीव्रविशुद्धि संक्लेशपरिणाममल्लद मध्यमपरिणाम१० बोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु । उ १ । औ २ । ति २। नो १ । था १। ए १॥
सोहम्मोत्ति य तावं तित्थयरं अविरदे मणुस्सम्मि।
चद्गदिवामकिलिट्ठे पण्णरस दुवे विसोहीये ॥१७४॥ सौषम्मपर्यन्तमातपः तीर्थकरमविरते मनुष्ये। चतुर्गतिवामक्लिष्टे पंचदश द्वे विशुधे॥
भवनत्रयमादियागि सौधर्मवयपर्यन्तमाद देवक्कंळातपनाममं संक्लिष्टरु जघन्यानुभागमं माळ्पर । मरकगतिगमनाभिमुखनप्प असंयतनोळ मनुष्यनोळ तीर्थकरनाममं जघन्यानुभाग
उद्योतः ओदारिकद्विकं च सुरनारके जघन्यानुभागं लभते । तत्र उद्योतः अतिविशुद्धदेवे बन्धाभावात् प्रशस्तत्वात् संक्लिष्टे एव लभते.। तिर्यग्द्विकं नीचैर्गोत्रं च सप्तमपृथ्वीनारके विशुद्धे, स्थावरमेकेन्द्रियं च नारकाद्विना शेषत्रिगतिजे तोवविशुद्धिसंक्लेशरहिते मध्यमपरिणामे एव ॥१७३॥
बातपनामकर्म भवनत्रये सौधर्मद्वये च संक्लिष्टे जघन्यानुभागं भवति तीर्थकृत्वं नरकगमनाभिमुखा.
नरकगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग और चार आयु इन सोलह प्रकृतियोंको मनुष्य और नियंच जघन्य अनुभाग सहित बाँधते हैं ॥१७२।।
विशेषार्थ-गाथामें चार आयु नहीं गिनायी हैं । टीकामें ही गिनायी हैं।
उद्योत और औदारिक द्विक देव और नारकीके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं। २५ उनमें से उद्योत प्रकृतिका बन्ध अति विशुद्ध परिणामवाले देवके नहीं होता । अतः संक्लेश
परिणामीके ही जघन्य अनुभाग सहित बंधती है। तियंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी और नीच गोत्र सातवें नरकमें विशुद्ध परिणामी नारकीके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं। स्थावर, एकेन्द्रिय ये दो प्रकृतियाँ नारकी बिना शेष तीन गतिवाले जीवके, जिसके परिणाम न तो
तीव्र विशुद्ध होते हैं और न तोत्र संक्लेशयुक्त होते हैं, किन्तु मध्यम परिणाम होते हैं उसीके ३० जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं ॥१७॥
आतप प्रकृति भवनत्रिक और सौधर्म ईशान स्वर्गके संक्लेश परिणामवाले देवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती है। तीर्थकर प्रकृति नरक जानेके अभिमुख असंयत सम्यक
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