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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१९७ मक्कुं। चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टिसंक्लिष्टनोळु मुंदण सूत्रदोळु पेळ्व पंचदश प्रकृतिगळु जघन्यानु. भागंगळप्पुवु । मत्तमरडु प्रकृतिगळु विशुद्धनोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवउवाउवेंदोडे पेन्दपर.:
परघाददुगं तेजदु तसवण्णचउक्क णिमिणपंचिंदी।
अगुरुलहुँच किलिट्ठ इत्थिणउंसं विसोहीये ॥१७॥
परघातद्विकं तेजसद्विकं सवर्णचतुष्कनिम्मणिपंचेंद्रियाण्यगुरलघुश्च विलष्टे स्त्रीनपुंसके ५ विशुद्धे ॥
परघातमुमुच्छ्वासमुं तेजसशरीरनाममुं कार्मणशरीरनाममुं त्रसबावरपर्याप्तप्रत्येकारीरचतुष्कमुं शुभवर्णचतुष्कमुं निर्माण पंचेंद्रियजातिनाममुमगुरुलघुनाममुमेंदिवु १५ पंचदशप्रकृतिगळे बुवक्कुमिवु चतुर्गतिमिथ्यादृष्टि संक्लिष्टजोवनोळु जघन्यानुभागंगळप्पुवु एके दोर्ड इवु प्रशस्तप्रकृतिाळप्पुरिदं, स्त्रीनपुंसकंगळेरामप्रशस्तप्रकृतिगळप्पुरिदं चतुग्गतिमिथ्यादृष्टिविशुद्ध- १० नोळ जघन्यानुभागंगळप्पुवु । अ१। ति १।११। उ १ ते २।। १। बा १।११। प्र१। व १ १ र १स्प १ । नि १।११। अगु १ । स्त्रों १ । न १॥
सम्मो वा मिच्छो वा अट्ठ अपरियट्टमझिमो य जदि ।
परिवमाणमज्झिममिच्छाइट्ठी दु तेवीसं ॥१७६॥ सम्यग्दृष्टिर्वा मिथ्यादृष्टिा अष्ट अपरिवत्र्तमानमध्यमश्च यदि । परिवर्तमानमध्यम- १५ मिथ्यादृष्टिस्तु त्रयोविंशति ॥ संयतमनुष्ये एव । उत्तरसूत्रोक्तपञ्चदशप्रकृतयः चतुर्गतिकमिथ्यादृष्टौ संक्लिष्टो. एव, द्वे प्रकृती विशुद्धे एव ॥१७४।। अमुमुत्तरार्धमेव स्पष्टयति---
परघातोच्छ्वासौ तैजसकामणे त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकानि शुभवर्णचतुष्क निर्माणं पञ्चेन्द्रियं अगुरुलघु चेति पञ्चदशप्रकृतयः चतुर्गतिमिथ्यादृष्टो संक्लिष्टे जघन्यानुभागा भवन्ति प्रशस्तत्वात् । स्त्रीषंढवेदी तस्मिन् २० विशुद्ध एव अप्रशस्तत्वात् ॥११५।। दृष्टी मनुष्यके जघन्य अनुभाग सहित बँधती है। आगे कही गयी। पन्द्रह प्रकृतियाँ चारों गतिके संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टी जीवके और दो प्रकृतियाँ चारों गतिके विशुद्ध परिणामी जीवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं ॥१७४॥
आगे उन्हीं प्रकृतियोंको कहते हैं ।
परघात, उच्छ्वास, तैजस, कार्मण, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ वर्णादि चार, निर्माण, पंचेन्द्रिय, अगुरुलघु ये पन्द्रह प्रकृतियाँ चारों गतिके संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टी जीवके जघन्य अनुभाग सहित बँधती हैं, क्योंकि ये प्रशस्त प्रकृतियां हैं। तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये दोनों अप्रशस्त हैं अतः इनका चारों गतिके विशुद्ध जीवके जघन्य अनुभागबन्ध होता है ॥१७॥ १. बरार्थिमेव ।
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