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________________ ४५२ गो० कर्मकाण्डे वेगुब्बतेजथिरसुहृदुग दुग्गदिहुडणिमिणपंचिदी । णिरयगदि दुब्भगागुरुतसवण्णचऊ य यांचठाणं ।।२०१॥ वैक्रियिकतेजः स्थिरशुभद्विकं दुर्गति हुंडनिर्माणपंचेद्रियनरकांत दुर्भगागुरुत्रसवर्णचतुष्टयानि च वचः स्थानं ॥ वैक्रियिकद्विकमु २। तैजसद्विकमुं २ स्थिरद्विकमुं २ शुभगद्विक २। अप्रशस्तविहायो. गतियुं १ इंडसंस्थानमुं १ निम्गिनामनु १ । पंचेद्रियजातिनाममुं १ दुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कोत्तिचतुष्कमु ४ अगुरुलघूपघातपरघातोच्छ्वासचतुष्क, ४ सबादरपप्तिप्रत्येक शरीरचतुष्क ४ । वर्णगंधर सस्पर्शचतुष्कर्मु ४ । इन्तु थिप्पत्तो भत्तुप्रकृतिाळु २९ नारकर वचः पदाप्तिस्थानदोळप्पु वु। अनंतरं घम्र्मेय नारक दयव्युच्छित्तिगळं पेळदपरु : मिच्छमणंतं मिस्सं मिच्छादिदिए कमा छिदी अयदे । बिदियकसाया दुब्भगणादेज्जदुगाउणिरयचऊ ।।२९२।। मिथ्यात्वमनंतानुबंधिनो मिश्रं मिथ्यादृष्टयादित्रये क्रमाच्छित्तिरसंयते । द्वितीयकषाया दुर्भगानादेयविकायुन्नारक चत्वारि ।। १५ मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्व उदयव्य च्छित्तियक्कुं। सासादननोलु अनंतानुबंधिकषाय चतुष्टयमुदयव्युच्छित्तियक्कुं। मिश्रनोळु सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिगुदयव्युच्छित्तियवकु-। मिन्तुक्तक्रमदिदमसंयतसम्यग्दृष्टियोळु द्वितीयकषायोदयमुं बुर्भगममनादेयमुमयशस्कोत्तियुं नरकायंमुष्य नरकगतियुं तत्प्रायोग्यापूर्व्यमुं बैक्रियिकशरोरनाममुं तदंगोपांगनाममुमितु कूडि पन्नर प्रकृतिगळुदयव्युच्छितियप्पुवु । वैक्रियिकद्विकं तैजसद्विक स्थिरद्विकं गुभद्विकं अप्रशस्तविहायोगतिः हंडसंस्थान निर्माणं पंचेंद्रियं नरकगतिः दुर्भगदुस्वरानादेयायशस्कीर्तयः अगुरुल धूपघातपरघातोच्छ्वासाः बसबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीराणि वर्णगंधरसस्पर्शाश्च इत्येकान्नत्रिशन्नारकाणां वचःपर्याप्तिस्थाने भवंति ।। २९१ ।। अथ घर्मानारकोदयव्युच्छित्तिमाह __ मिथ्यात्वं अनंतानुबंधिचतुष्कं सम्यग्मिथ्यात्वं च क्रमेण मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानत्रये व्युच्छित्तिः । २५ वैक्रियिकद्विक, तैजस कार्माण, स्थिर अस्थिर, शुभ अशुभ, अप्रशस्त विहायोगति, हुण्डक संस्थान, निमोण, पंचेन्द्रिय, नरकगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीति ये चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास ये चार, त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येक ये चार, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये चार इस प्रकार ये उनतीस प्रकृतियाँ नारकी जीवोंके वचन पर्याप्ति के स्थानमें उदयमें आती हैं ॥२९१।।। आगे घर्मा नामक प्रथम नरकमें उदय व्युच्छित्ति कहते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें एक मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी तथा मिश्रमें सम्य मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। और असंयतमें ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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