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________________ २१८ गो० कर्मकाण्डे ततीये वेदनीयदोलु अधिकः अधिकमक्कु । मिन्तु पसल्पडुत्तिरलु मिथ्यादृष्टियोळु नरकतिर्यग्मनुष्यदेवायुर्भेददिदं चतुविधमकुं। ___सासादननोळ तिर्यग्मनुष्यदेवायुब्र्भेददिदं त्रिविधमकुं। असंयतनोळ मनुष्यदेवायुन्थ्रददिदं द्विविधमक्कं । देशसंयतप्रमत्ताप्रमत्सरोज देवायुष्यभेददिनेकविधयक्कु । मायुबंधरहितपेयिंदम५ निवृत्तिकरणपथ्यंत ९ गुणस्थानंगळोळु सप्तविधमूलप्रकृतिप्रदेशबंधमक्कु । सूक्ष्मसांपरायनोळु ६ षड्विधमूल प्रकृतिगळगे प्रदेशबंधमकुमुपशांतादिसयोगकेवलिपर्यतमेकमूलप्रकृतिगे सर्वसमयप्रबद्रव्यमुदयात्मकप्रदेशबंधमक्कु। | वेद स ८मो स८णा स १८ द स ८ अन्तराय स ०८ गो स ८ ना स ८ । आस ८ ८।९ ८१९८९ ८९| ८९ । ८९ ८९८९ स ८ स ८ स ८ स ८ स ८ - स ८ स ८ स १ ९९ २९५ ९९९९।३ ९९९९।३ ९९९९।३ , ९९९९९।२ ९९९९९।२ ९९९९९ अनंतरं वेदनोधक्क सर्शतोधिकमम्पुदक्के कारणमं पेन्दपर :-- सुहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स । सव्वेहितो बहुगं दव्वं होदित्ति णिदिळं ॥१९३।। सुखदुःखनिमित्तात् बहुनिजरेति वेदनीयस्य । सर्वतो बहुकं द्रव्यं भवतीति निद्दिष्टं ॥ वेदनीयस्य वेदनीयक्के सुखदुःखनिमित्तात् सुखदुःखकारणदिदं बहुनिजरेति बहुनि रेयुटेदिन्तु सर्वतः सर्वप्रकृतिगळ भागेय द्रव्यमं नोडलं बहुकं द्रव्यं पिरिदुं द्रव्यं भवतीति निद्दिष्टं तथा समानोऽपि ततोऽधिकः । ततो मोहनीयेऽधिकः ततो वेदनीयेऽवकः । एवं भक्त्वा दत्ते सति मिथ्यादृष्टी १५ आयुश्चतुर्विधम् । सासादने नारकं नेति त्रिविधम् । असंयते तैरश्चमपि नेति द्विविधम् । देशसंयतादित्रये एक देवायुरेव । उपर्यनिवृत्तिकरणांतेषु सप्तविधमूलप्रकृतीनां प्रदेशबन्धः सूक्ष्मसापराये षण्णां उपशांतादित्रये एकाया उदयात्मिकायाः ॥१९२॥ अथ वेदनीयस्य सर्वत आधिक्य कारणमाह वेदनीयस्य सुखदुःखनिमित्तत्वात् बहुकं निर्जरयति इति हेतोः सर्वप्रकृतिभागद्रव्यात् बहुकं द्रव्यं भवमोहनीयका भाग अधिक है। मोहनीयसे वेदनीयका भाग अधिक है। सो मिथ्यादृष्टि गुण२० स्थानमें चारों आयुका बन्ध सम्भव है । सासादनमें नरकायुके बिना तीन आयुका बन्ध होता है । असंयतमें नरक और तियचके बिना दो आयुका बन्ध होता है। देशसंयत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें एक देवायुका ही बन्ध होता है। ऊपर अनिवृत्तिकरण पर्यन्त आयुके बिना सात ही कर्मों का प्रदेशबन्ध होता है। सूक्ष्म साम्परायमें आयु और मोहनीयके बिना छह कर्मों का बन्ध होता है । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीमें एक वेदनीयका बन्ध होता है जो उदयरूप ही है। जहाँ जितने कोका बन्ध होता है वहाँ समयप्रबद्ध में उतने ही कर्मोंका बँटवारा होता है ।।१९२।। आगे वेदनीय कर्मका सबसे अधिक भाग होनेका कारण कहते हैं वेदनीय कर्म सुख और दुःख में निमित्त होता है। इससे उसकी निर्जरा बहुत होती १. ब षु मूलप्रकृतयः सप्त, सूक्ष्मसांपराये षट् । उपशान्तादित्रये एका उदयात्मिका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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