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________________ २३६ गो० कर्मकाण्डे अनंतरं मोहनीयदोळु द्रव्यविभंजनक्के विशेषमुंटे'दु पेळ्दपरु : मोहे मिच्छत्तादी सत्तरसण्हं तु दिज्जदे हीणं । संजलणाणं भागेव होदि पणणोकसायाणं ।।२०२॥ मोहे मिथ्यात्वादीनां सप्तदशानां तु दीयते हीनं। संज्वलनानां भागे इव भवति पंच नोकषायाणां ॥ मिथ्यात्वादीनां सप्तदशानां मिथ्यात्व अनंतानुबंधिलोममायाक्रोधमानं संज्वलनलोभमायाक्रोधमानं, प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानमप्रत्याख्यानलोभमाया क्रोधमानमें बी सप्तदशप्रकृतिगळोळ होनं दीयते होनक्रमदिदं कुडल्पडुगुं। संज्वलनानां भागे इव भवति पंच नोकषायाणां संज्वलनंगळ भागेयोळेतु वक्ष्यमाणदेयक्रममते वेदत्रयरत्यरति । हास्यशोक । भय जुगुप्सयुमेंब १. पंचप्रकृतिस्थानकंगळोळं देयक्रममक्कुमते दोडे पेळदपरु : संजलणभागबहुभागद्धं अकसायसंगयं दव्वं । इगिभागसहियबहुभागद्धं संजलणपडिबद्धं ॥२०३।। संज्वलनभागबहुभागार्द्धमकषायसंगतं द्रव्यं । एकभागसहितबहुभागाद्धं संज्वलनप्रतिबद्धं ॥ भक्त्वा प्रत्येक देयम् । शेषकभागे प्रतिभागभक्तबहभागं बहभागं अधिकक्रमेण दत्वा शेषकभागं दानान्तराये १५ दद्यात् । एवं दत्ते सति अधिकक्रमा भवन्ति ॥२०१॥ अथ मोहनीयस्य विशेषमाह मिथ्यात्वानन्तानुबंधिसंज्वलनप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमानानां सप्तदशानां हीनक्रमेण दीयते । संज्वलनानां भागे इव वेदत्रयरत्यरतिहास्यशोकभयजुगुप्सानां देयक्रमो भवति ॥२०२॥ तद्यथा बहुभाग वीर्यान्तरायको दें। शेष एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग उपभोगान्तरायको दे। इसी प्रकार एक भागमें प्रतिभाग दे-देकर बहुभाग भोगान्तरायको फिर लाभान्तरायको दें। शेष एक भाग दानान्तरायको देना । पहले पाँच समान भागोंमें पीछेसे दिये एक-एक भागको मिलानेपर अपने-अपने द्रव्यका प्रमाण होता है। अन्तरायकर्म देशघाती है इससे इसमें सर्वघातीका बँटवारा नहीं है। तथा सर्वत्र प्रतिभागका प्रमाण आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ।।२०१।।। २५ मोहनीय कर्म में कुछ विशेष है उसे कहते हैं मोहनीय कर्ममें मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी लोभ, माया, क्रोध, मान, संज्वलन, लोभ, माया, क्रोध मान, प्रत्याख्यानावरण लोभ, माया, क्रोधमान, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, माया, क्रोधमान, इन सतरह प्रकृतियों में क्रमसे हीन द्रव्य देना । पाँच नोकषायोंका भाग संज्वलनके भागके बराबर होता है। नोकषाय नौ हैं किन्तु एक समयमें उनमें-से पाँच ही बँधती हैं। ३० तीन वेदोंमें-से एक समयमें एक ही वेद बँधता है। रति-अरतिमें-से भी एक समयमें एक ही बँधती है। हास्य और शोकमें-से एक समय में एकका ही बन्ध होता है। भय और जुगुप्सा दोनों बंधती हैं। इस तरह एक साथ पाँच ही बंधती हैं ॥२०२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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