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________________ १४२ गो० कर्मकाण्डे द्विकमुमेंब अयोग्यप्रकृत्यष्टकम कळेदुळिद १०९ प्रकृतिगळगी प्रतिभागक्रमदिदं उत्कृष्टस्थितिबंध. मने द्रियजीवंगळ्गे साधिसिदन्ते द्वींद्रियादिगळगं साधिसल्पडुवुदु । संदृष्टिरचने ए । द्वीं । त्रीं । चतु असं उचाळीसि सा४ सा २५ । ४ | सा ५०४ सा १००४ उ तोसि ७ विसि सा३ सा २५ । ३ सा ५० ३, सा १००३ सा १००० ३ सा २ सा २५ । २ सा ५०२ सा १००२ सा १००० २ सा १०००४ ه م ه ه س م م م लब्धानि द्वीन्द्रियादीनां चालीसियादिगतोत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणानि भवन्ति । एवं जघन्यस्थितिबन्धमप्येकेन्द्रियादीनां साधयेत् ॥१४५।। ५ पुरुषवेद, स्थिरादि छह और प्रशस्त विहायोगतिका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध एक सागरके सात भागोंमें-से एक भाग प्रमाण एकेन्द्रिय जीवके साधना चाहिए । इसी प्रकार पच्चीस. पचास, सौ और हजार सागर इन चारको फल राशि करके चालीस आदि कोड़ाकोड़ी सागरको पृथक्-पृथक् इच्छाराशि करके और प्रमाणराशि पूर्वोक्त सत्तर कोड़ाकोड़ीको करके द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पवेन्द्रियके क्रमसे पच्चीस, पचास, सौ और हजारसे १. गुणित उक्त एकेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना दो-इन्द्रिय जीवके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरकी उत्कृष्ट स्थितिवाला मिथ्यात्व कर्म पच्चीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति लेकर बँधता है तो तीस आदि कोड़कोड़ी सागरकी स्थितिवाले कर्म दो-इन्द्रिय जीवके कितनी स्थिति लेकर बँधते हैं ? ऐसा त्रैराशिक करनेपर १५ प्रमाणराशि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, फलराशि पच्चीस सागर और इच्छाराशि विवक्षित __ कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण, सो फलराशिसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतनी-उतनी उत्कृष्ट स्थिति दो-इन्द्रिय जीवके बंधती है। सो जिनकी स्थिति चालीस कोडाकोड़ी सागर है उनकी सौ सागरका सातवाँ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बँधती है। जिनकी स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है उनकी पिचहत्तर सागरका २० सातवाँ भाग प्रमाण बँधती है। इसी प्रकार सब कर्मोकी एकेन्द्रियसे पञ्चीस गुनी उत्कृष्ट स्थिति दो इन्द्रियके बंधती है । तेइन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागर प्रमाण बँधती है। अतः फलराशि पचास सागर करनेपर जो जो प्रमाण आवे उतनी स्थिति अन्य कोंकी बंधती है। दो इन्द्रियकी फल राशि पच्चीस सागरसे तेइन्द्रियकी फलराशि दूनी | | चाली | सकें । द्वौं २५४ | ५० ४ | सत.. ४ अस१... ४ | एकें । द्वीं | चाली सा ५०४ सा १००४ - सा १०००४ तीसि । सा ५० ३ सा १००३ सा १००० ३ » 9 mar, » و سه ه ه ه ه ه ه ه ، م س ه ه ه " 990, सि २ सा २५२ सा ५०२ १०० २ सा १००० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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