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________________ १८६ गो० कर्मकाण्डे aerodara मूलप्रकृतिगळगाबाधाविशेषमं पेदपरु :आवलियं आबाहोदीरणमासेज्ज सत्तकम्माणं । परभवियआउगस्स य उदीरणा णत्थि नियमेण ॥ १५९ ॥ आवलिकाबाधोदीरणामाश्रित्य सप्तकर्मणां । परभवायुषश्चोदीरणा नास्ति नियमेन ॥ उदीरणेनाश्रयिसि आयुर्व्वं ज्जितसममूलप्रकृतिगळ्गाबाधेयावलिकामा त्रमेयक्कुमदनचळवळियेंबुददं कळि प्रथमादिनिषेकं गळोळपकृष्टद्रव्यमनुदयावळियाळमुपरितनस्थितियोळतिच्छापनावळियं कळे वुलिद सव्र्व्वस्थिति निषेकंगळोळ "मद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिमधणमागच्छदि तं रूअण अद्धाण अद्वेण ऊणेण जिसेय भागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचयं तं दोगुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयं । तत्तो विसेसहीणकम" - मेदितु प्रथमादिगुणहाणिद्रव्यंगळं तंतम्म १० प्रथमादिनिषेकंगळं बिट्टु द्वितीयादिनिषेकं गलोल तंतम्म गुणहानिसंबंधिविशेषहोनक्रमदर्द २५ कृतौ ।। १५८।। उदीरणां प्रत्याह उदीरणामाश्रित्य आयुर्वजितसप्तमूलप्रकृतीनां आबाधा आवलिकैव भवति सा चावलिः अचलावलि - रित्युच्यते, तां त्यक्त्वा अपकृष्टद्रव्यं उदयावत्यां उपरितनस्थितौ तु चरमे अतिस्थापनावलीं क्यक्त्वा नानागुणहानिषु च सर्वनिषेकेषु, "अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे मज्झिमघणमागच्छदि तं रूऊगद्वाणद्वेण ऊणेण १५ णिसेय भागहारेण मज्झिमघणमवहरिदे पचयं तं दोगुणहाणिणा गुणिदे आदिणिसेयं तत्तो विसेसहीण कर्म" इति आगे उदीरणाकी अपेक्षा आबाधा कहते हैं 1 उदीरणाको लेकर आयुके बिना सात मूल प्रकृतियोंकी आबाधा एक आवली प्रमाण ही होती है । अर्थात् जो कर्म उदीरणारूप होता है तो बँधनेके पश्चात् एक आवली प्रमाणकाल बीतने पर ही उदीरणारूप होता है। इससे उदीरणाकी अपेक्षा आबाधा एक आवली २० प्रमाण कही है । कर्म बँधनेपर एक आवली तक तो जैसा बँधा वैसा ही रहता है, उदयरूप या उदीरणारूप नहीं होता । इसीसे इस आवलीको अचलावली कहते हैं । इस अचलावलीको छोड़ पीछे कर्म परमाणुओं में से कितने ही कर्म परमाणुओंका अपकर्षण करके जिन्हें उदयावली में देता है, वे तो आवलीकालमें उदय देकर खिर जाते हैं। और जिन्हें ऊपर की स्थिति में देता है वे उदयावलीके ऊपरकी स्थिति के अनुसार खिरते हैं । अन्तिम आवली प्रमाण अतिस्थापनावलीको छोड़ जो परमाणु प्राप्त होते हैं वे नानागुण हानिके द्वारा सर्वनिषेकों खिरते हैं । सो उदयावलीमें दिया उदीरणा द्रव्य कैसे खिरता है यह कहते हैं ३० विवक्षित कालके समयोंका प्रमाण यहाँ गच्छ है। उससे सर्वधन अर्थात् विवक्षित सर्व परमाणुओं के प्रमाण में भाग देनेपर मध्यम धन अर्थात् मध्यके समयों में जितने खिरते हैं। उनका प्रमाण आता है । उस मध्यम धनमें, एक कम गच्छके आधा प्रमाण सो निषेक भागहार जो दो गुणहानि उसमें घटानेपर जो प्रमाण रहे उसका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे सो चयका प्रमाण जानना । उस चयको दो गुणहानिसे गुणा करनेपर प्रथम समय में जितने परमाणु खिरते हैं उनका प्रमाण आता है । द्वितीय आदि समय सम्बन्धी निषेकोंमें एकएक चयहीन परमाणु खिरते हैं। इन सबका विशेष स्वरूप पहले कह आये हैं और आगे भी कहेंगे । इस प्रकार असमय में ही उदीरणाके द्वारा उदयावलीमें प्राप्त कर्म के खिरनेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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