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________________ - गो० कर्मकाण्ड कार्यवश बाजारसे जाता है और कोई सुन्दरी उसपर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाती है तो इसमें पुरुषका क्या कर्तृत्व है । कर्वी तो वह स्त्री है, पुरुष तो उसमें निमित्त मात्र है। उसे तो इसका पता भी नहीं रहता। समयसारमें कहा है जीवपरिणामहेदुकम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ ८६ ॥ ण वि कुम्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ॥ ८७ ॥ एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥ ८८॥ अर्थ-जीव तो अपने रागद्वेषादिरूप भाव करता है। उन भावोंको निमित्त करके कर्मरूप होनेके योग्य पुद्गल कर्मरूप परिणत हो जाते हैं। तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल जब फलोन्मुख होते हैं, तो उनका निमित्त पाकर जीव भी रागद्वेषादिरूप परिणमन करता है। यद्यपि जीव और पुद्गल दोनों एक दूसरेको निमित्त करके परिणमन करते हैं तथापि न तो जीव पुद्गल कर्मोके गुणोंका कर्ता है और न पुद्गलकर्म जीवके गुणोंका कर्ता है। किन्तु दोनों परस्परमें एक दूसरेको निमित्त करके परिणमन करते हैं। अतः आत्मा अपने भावोंका ही कर्ता है, पुद्गल कर्मकृत समस्त भावोंका कर्ता नहीं है। सांख्यके दृष्टान्तसे किन्हीं पाठकों को यह भ्रम होनेकी सम्भावना है कि जैन धर्म भी सांख्यकी तरह जीवको सर्वथा अकर्ता और प्रकृतिकी तरह पुद्गलको ही कर्ता मानता है। किन्तु ऐसी बात नहीं है । सांख्यका पुरुष तो सर्वथा अकर्ता है किन्तु जैनोंको आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है । वह आत्माके स्वाभाविक भाव ज्ञान दर्शन सुख आदिका और वैभाविक भाव राग-द्वेष आदिका कर्ता है, किन्तु उनको निमित्त करके पुद्गलोंमें जो कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। सारांश यह है कि वास्तव में तो उपादान कारणको ही किसी वस्तुका कर्ता कहा जाता है। निमित्त कारणमें जो कर्ताका व्यवहार किया जाता है वह तो व्यावहारिक है, वास्तविक नहीं है। वास्तविक कर्ता तो वही है, जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है। जैसे घटका कर्ता मिट्टी ही है कुम्हार नहीं। कुम्हारको जो लोकमें घटका कर्ता कहा जाता है उसका केवल इतना ही. तात्पर्य है कि घट पर्यायमें कुम्हार निमित्त मात्र है। वास्तवमें तो घट मिट्टीका ही एक भाव है अतः वही उसका कर्ता है। जो बात कर्तृत्व के सम्बन्धमें कही गयी है वही भोक्तृत्वके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिए। जो जिसका कर्ता नहीं वह उसका भोक्ता कैसे हो सकता है। अतः आत्मा जब पुद्गल काँका कर्ता ही नहीं तो उनका भोक्ता कैसे हो सकता है। वह अपने जिन राग-द्वेषादि रूप भावोंका संसारदशामें कर्ता है उन्हींका भोक्ता भी है। जैसे व्यवहारमें कुम्हारको घटका भोक्ता कहा जाता है क्योंकि घटको बेचकर जो कुछ कमाता है उससे अपना और परिवारका पोषण करता है। किन्तु वास्तवमें तो कुम्हार अपने भावोंको ही भोगता है। उसी तरह जीव भी व्यवहारसे स्वकृ कोंके फलस्वरूप सुख-दुःखादिका भोक्ता कहा जाता है। वास्तव में तो अपने चैतन्य भावोंका ही भोक्ता है। इस प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्वके विषयमें निश्वय दृष्टि और व्यवहारदृष्टिके भेदसे द्विविध व्यवस्था है । निश्चय और व्यवहार आगममें कथनकी दो शैलियां प्रचलित हैं उनमें से एकको निश्चय और दूसरीको व्यवहार कहते हैं । ये दोनों दो नय हैं। नय वस्तुस्वरूपको देखनेकी दृष्टिका नाम है। जैसे हमारे देखने के लिए दो आंखें हैं वैसे ही वस्तुस्वरूपको देखने के लिए भी दो नयरूप दो दृष्टियां हैं। एक नयदृष्टि स्वाश्रित है अर्थात् वस्तुके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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