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________________ ६२८ गो० कर्मकाण्डे स्थानपंचकदोळ पेळल्पडुगुं । तिय्यंगायुद्धज्जितविवक्षितभुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रितयं "हितागि नूरनाल्वत्तरदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु भुज्यमाननारकं मनुष्यं देवनब भेददिदं मूरु भंगंगळप्पुवनंतानुबंधिचतुष्क, विसंयोजनमं माडिदातंगेळु प्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानदोळु भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनेब भेदिदं भंगत्रयमक्कुं। मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसिवातंगेटु प्रकृतिरहितमागि नूरनाल्वत्त प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लिभुज्यमानमनुष्यनों दे भंगमक्कुं। मिश्रप्रकृतियं क्षपिसिदातंगे नवप्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्तो भतु प्रकृतिसत्व स्थानमक्कुमल्लियुं तियंग्गतिवज्जितमागि भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनेब भेवदिदं भंगत्रयमक्कुमेके बोर्ड कृतकृत्यवेदकंगे सतीत्थंगे मनुष्यंगे गतिद्वयजनन संभवमुंटप्पुरिदं। सम्यक्त्व प्रकृतियं क्षपिसिवंगयुं भुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुत्रितयमुमतानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्वादिवर्शनमोहनीयत्रयमुमंतु दशप्रकृतिसत्वरहितमागि नूरमूवत्तें टु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमाननारकमनुष्यदेवनें ब भेददिदं भंगत्रयमक्कुमी अबद्धायुष्यनप्प सतीर्थनप्प क्षायिकसम्यग्दृष्टि तद्भवदोळ घातिगळं केडिसिदोर्ड गर्भावतरणकल्याणमुं जन्माभिषवणकल्याणमुमिल्ल । अथवा तृतीयभवदोळ घातिगळं के डिसुवडे नियमदिदं देवायुष्यमं कट्टि देवनक्कु मातंगे पंचकल्याणंगळुमोळवु। बद्धनरकायुष्यनप्प सतीत्थंगेयुं नारकनागि प्रथमद्वितीयतृतीय१५ पृथ्विगळोळिणंगविंगळु भुज्यमाननरकायुष्यावशेषमादागळु तीर्थकरविशिष्टमनुष्यायुष्यमं हंति तदा गर्भावतरणजन्माभिषवणकल्याणे न स्यातां । अथ तृतीय भवे हंति तदा नियमेन देवायुरेव बध्वा देवो भवेत् तस्य पंच कल्याणानि स्युः । यो बद्धनारकायुस्तीर्थसत्त्वः स प्रथमपृथ्व्यां द्वितीयायां तृतीयायां वा जायते । तस्य षण्मासावशेषे बद्ध मनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारणं गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवति । द्वितीयपंक्त बद्धायुःपंचस्थानेषु विवक्षितभुज्यमानबध्यमानाम्यामितरायुयतीर्थाभावात्पंचचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने विसंयोजितानंतानुबंधिन एकचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने च तीर्थासत्त्वाच्चातुर्गतिसंबंधिद्वादशभंगेषु समभंगेषु समपुनरुक्तान्विना पंच । क्षपितमिथ्यात्वस्य चत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थाने भुज्यमानमनुष्यस्य बध्यमान. monwwwwwwwwwwwww ही कल्याणक होते हैं। यदि तीसरे भवमें घातिकमौंको नष्ट करता है तो नियमसे देवायुको बाँधता है। वहाँ देवायु सहित एक सौ अड़तीसका सत्त्व पाया जाता है। मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेपर उसके पाँच कल्याणक होते हैं। किन्तु जिसने मिथ्यात्वमें नरकायुका बन्ध २५ किया है और उसके तीर्थंकरका सत्त्व है तो वह प्रथम द्वितीय या तृतीय नरकमें उत्पन्न होता है उसके एक सौ अड़तीसका सत्त्व होता है। उसकी आयुमें छह महीना शेष रहनेपर मनुष्यायुका बन्ध होता है तथा नरकमें नारकियों द्वारा किये जानेवाले उपसर्गका निवारण और पंचकल्याणक होते हैं। दूसरी पंक्ति सम्बन्धी बद्धायुके पाँच स्थानों में विवक्षित भुज्यमान और बध्यमान बिना ३० दो आय और तीर्थंकरके बिना एक सौ पैंतालीस प्रकृतिरूप प्रथम स्थान है । अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होनेपर एक सौ इकतालीस प्रकृतिरूप दूसरा स्थान है। इन दोनों स्थानों में तीर्थकर प्रकृतिका अभाव होनेसे चारों गति सम्बन्धी बारह भंगों में समभंग और पुनरुक्त भंगके बिना पाँच-पाँच भंग जानना। मिथ्यात्वका क्षय होनेपर एक सौ चालीस प्रकृतिरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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