________________
६२९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका कट्टिदंगे नारकोपसर्गनिवारणमुं गर्भावतरणादिकल्याणंगळुमप्पुवु। द्वितीयपंक्तिय बहायुष्यन सत्वस्थानपंचकंगळोछु तोर्थमुं विवक्षितज्यमानबध्यमानायुद्वितयमुमल्लदितराद्वितयमुमंतु त्रिप्रकृतिसत्वरहितमागि नूरनाल्वत्ता प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि तीर्थरहितस्थानमप्युदरिद चतुर्गतिसंबंधि द्वादशभंगंगळोळु पुनरुक्तसमभंगळेळं कळे दु शेषपंचभंगंगलप्पुवु । अनंतानुबंधिविसंयोजनमं माडिदातंगे तीर्थमुमन्यतरायुद्वितयमुं अनंतानुबंधिचतुष्टयमुमंतेलु सत्वरहितमागि नूरनाल्वत्तोंदु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुमा पंचभंगंगळप्पुवु। मिथ्यात्वप्रकृतियं क्षपिसि मिश्रप्रकृतियं क्षपियिसुत्तिप्पात मनुष्यनेयप्पुरिंदमातंगे तीर्थमुमितरायुद्वितयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वमुमंते टुं प्रकृतिरहितमागि नूर नाल्वत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लि भुज्य. मानमनुष्यंगे बध्यमाननरकतिर्यग्मनुष्यदेवनेब भेददिदं नाल्कु भंगंगळोळु पुनरुक्तभंगमोवं कळेदु शेषभंगंगळु मूरप्पुवु। मिश्रप्रकृतियुमं क्षपिसि सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसुत्तिर्प कृतकृत्य- १० वेदकंगं तीर्थमुमितरायुद्वितयमुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुं मिथ्यात्वप्रकृतियुं मिश्रप्रकृतियु कूडि नव प्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवतोभत्तु प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमल्लियुं भुज्यमानमनुष्यं बद्धनरकतिय्यंग्मनुष्यदेवायुष्यभेददिवं नाल्कु भंगंगळोळु पुनरुक्तमं कळेदु मूरु भंगंगळप्पुवु । सम्यक्त्वप्रकृतियं क्षपिसि क्षायिकसम्यग्दृष्टियाद तीर्थरहितंगे तीत्यमुमितरायुद्वितयमुमतानुबंधि चतुष्टयमुं दर्शनमोहनीय त्रयमुमंतु दशप्रकृतिसत्वरहितमागि नूर मूवत्त टुं प्रकृतिसत्वस्थान. १५ मक्कुमल्लिभुज्यमाननारकं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुं । भुज्यमानतिय्यंचं बध्यमानदेवायुष्यनु। भुज्यमानमनुष्यं बध्यमाननरकायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानतिर्यगायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनु । भुज्यमानमनुष्यनु बध्यमानदेवायुष्यनु । भुज्यमानदेवं बध्यमान. मनुष्यायुष्यनुमेंब सप्तभंगंगळोळु मुज्यमानमनुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनेब पुनरुक्तभंगमुमं नरकतिर्यक्मनुष्यदेवभेदेन चतुर्यु भंगेषु पुनरुक्तमेकं विना त्रयः । क्षपितमिश्रस्यैकान्नचत्वारिंशच्छतसत्त्वस्थानेऽपि त एव त्रयः । क्षपितसम्यक्त्वप्रकृतेरष्टत्रिशच्छतसत्त्वस्थाने भज्यमाननारकबध्यमानमनुष्यायुष्कः १ भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानदेवायुष्क: २ भुज्यमानमनुष्यबध्यमाननरकायुष्कः ३ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानतिर्यगायुष्कः ४ भुज्यमानमनुष्यबध्यमानमनुष्यायुष्कः ५. भुज्यमानमनुष्यबध्यमानदेवायुष्कः ६ भुज्यमानदेवबध्यमानमनुष्या
तीसरा स्थान है। वहाँ भुज्यमान मनुष्यायु और बध्यमान नरकायु तिर्यंचायु मनुष्यायु देवायुके भेदसे चार भंग होते हैं। उनमें-से भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान मनुष्यायु भंग एक २५ ही प्रकृति होनेसे पुनरुक्त है । उसके बिना तीन भंग होते हैं। मिश्रमोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ उनतालीस प्रकृतिरूप चौथा स्थान है। वहाँ भी उसी प्रकार तीन भंग होते हैं । सम्यक्त्व मोहनीयका क्षय होनेपर एक सौ अड़तीस प्रकृतिरूप पाँचवाँ स्थान है। वहाँ भुज्यमान नरकायु बध्यमान मनुष्यायु १ भुज्यमान तिर्यंचायु बध्यमान देवायु २ भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान नरकायु ३ भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान तिर्यंचायु ४ भुज्यमान मनुष्याय ३० बध्यमान मनुष्यायु ५, भुज्यमान मनुष्यायु बध्यमान देवायु ६, भुज्यमान देवायु बध्यमान मनुष्यायु इन सात भंगोंमें पाँचवाँ भंग पुनरुक्त है क्योंकि एक ही मनुष्यायु है। पहला भंग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org