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________________ २४ गो० कर्मकाण्डे सा स्त्यानगृद्धि । इह स्यानगृद्धयादिभिर्देशनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यतयितिस्त्यानगृद्धिईर्शनावरणमिति । यदुदयान्निद्रायाः उपर्युपरि वृत्तिस्तन्निद्रानिद्रादर्शनावरणं । यदुदयाद्या क्रिया आत्मानं पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचलाप्रचलादर्शनावरणं। शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका सैव पुनःपुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचलेत्यर्थः। यदुदयान्मदखेदक्लमव्यपनोदात्थं स्वापस्तन्निद्रादर्शनावरणं। यदुदयाद्या क्रिया आत्मानं प्रचलयति तत्प्रचलादर्शनावरणमिति ॥ यदुदधाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्वातं। तद्वेदयति वेद्यत इति सातवेदनीयं यदुदयफलं दुःखमनेकविधं तदतात। तद्वेदयति वेद्यत इत्यसातवेदनीयमिति ॥ दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयमिति मोहनीयं चतुम्विधं । तत्र दर्शनमोहनीयं १० सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वमिति त्रिविधं । तबंधं प्रत्येकविधं सत् उदयसत्कर्मापेक्षया त्रिविधमवतिष्ठते । यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुखो हिताहितविचागृद्धरपि दीप्तिर्गृह्यते । स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दीप्यते यदुदयादात रौद्रं च बहु च कर्मकरणं सा स्त्यानगृद्धिः । इह स्त्यानगृद्धयादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते इति स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणमिति । यदुदयान्नि द्राया उपर्युगरि वृत्तिः तन्निद्रानिद्रादर्शनावरणं । यदुदयात् या क्रिया आत्मानं पुनः पुनः प्रचलयति तत्प्रचला . १५ प्रचलादर्शनावरणं । शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगावविक्रियासूचिका [ सैव पुनः पुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचलेत्यर्थः ] । यदुदयात मदखेदवलमव्यपनोदाथं स्वापः तन्निद्रादर्शनावरणं । यदुदयात. या क्रिया आत्मानं प्रचलयति तत्प्रचलादर्शनावरणमिति । __यदुदयादेवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिः तत्तातं; तद्वेदयति वेद्यते इति सातवेदनीयं । यदुदयफलं दुःखमनेकविधं तदसातं तद्वेदयति वेद्यते इत्यसातवेदनीयमिति । २० दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधं । तत्र दर्शनमोहनीयं सम्यक्त्वं-मिथ्यात्वं-सम्यग्मिथ्यात्वमिति त्रिविधम् । तद्बन्धं प्रति एकविध सत् तदेव मिथ्यात्वं सत्कर्मा हैं। सोते में जिसके द्वारा शक्ति विशेष प्रकट हो वह स्त्यानगृद्धि है। 'स्त्यायति'के अनेक अर्थ होनेसे यहाँ शयन अर्थ लिया है । और गृद्धिका अर्थ दीप्ति लिया है। अतः 'स्त्यान' यानी शयनमें जिसके उदयसे आत्मा दीप्त होती है, आरौिद्ररूप बहु कर्म करती है वह स्त्यानगृद्धि २५ है यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके साथ दर्शनावरणका समान अधिकरण रूपसे सम्बन्ध किया जाता है कि स्त्यानगृद्धि ही दर्शनावरण है। जिसके उदयसे निद्रापर निद्रा आती है वह निद्रानिद्रादर्शनावरण है। जिसके उदयसे जो क्रिया आत्माको पुनः-पुनः प्रचलित करती है वह प्रचलाप्रचलादर्शनावरण है । यह शोक, मेहनत, नशा आदिसे होती है, वैठे हुए भी मनुष्यके नेत्र और गात्रमें विकारकी सूचक है । इसकी पुनः पुनः आवृति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके ३० उदयसे मद, खेद, थकान दूर करनेके लिए सोया जाता है वह निद्रादर्शनावरण है। जिसके उदयसे जो क्रिया आत्माको प्रचलित करती है वह प्रचलादर्शनावरण है। जिसके उदयसे देवादि गतियोंमें शारीरिक और मानसिक सुख की प्राप्ति हो वह साता है उसका जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा उसका वेदन हो वह सातवेदनीय है । जिसके उदयका फल अनेक प्रकारका दुख है वह असाता है उसका जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा उसका वेदन हो ३५ वह असात वेदनीय है। मोहनीयके चार भेद हैं-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषाय वेदनीय, नोकषायवेदनीय । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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