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________________ २५२ गो० कर्मकाण्डे ज्ञानावरणपंचकममन्तरायपंचकमुं निद्राप्रचलाचक्षुद्देशनमचक्षुर्दशनमवधिदर्शनकेवलदर्शना. वरणम ब वर्शनषट्क, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनक्रोधमानमायालोभंगळु भयमुं जुगुप्सयुमेंब मोहचतुर्दशकममिन्तु त्रिंशत्प्रकृतिगळनुत्कृष्ट प्रदेशबंधं चतुविकल्पः साधनाविध्र वाध्र वभेवदिदं चतुविकल्पमक्कुं। अनंतरमुत्कृष्टबंधस्वामिसामग्रीविशेषमं पेळ्दपरु : उक्कडजोगो सण्णी पज्जत्तो पयडिबंधमप्पदरो। कुणदि पदेसुक्कस्सं जहण्णये जाण विवरीयं ॥२१॥ उत्कृष्टयोगः संजिपर्याप्तः प्रकृतिबंधाल्पतरः। करोति प्रदेशोत्कृष्टं जघन्येन जानीहि विपरीतं ॥ १० प्रदेशोत्कृष्टं प्रदेशोत्कृष्टमं उत्कृष्टयोगः उत्कृष्टयोगमनुफळ संजिपंचेंद्रियसंजिजीवनुं पर्याप्तः परिपूर्णपर्याप्तिकनुं प्रकृतिबंधाल्पतरः प्रकृतीनां बंधोऽल्पतरो यस्यासौ प्रकृतिबंधाल्पतरः अल्पतरमाव प्रकृतिगळ बंधमनु मनुं करोति माळकुं। जघन्येन जघन्यदिदं प्रदेशबंधदोळ विपरीतं जानीहि उक्तसामनोविशेषविपरीतनं स्वामियें दरियेंदु शिष्य संबोधिसल्पढें । जघन्ययोगमनळ्ळनुमसंज्ञियुमपर्याप्तनुं प्रकृतिबंधबहुतरनुंजघन्यप्रदेशबंधमं माळपर्ने बुदत्थं । अनंतरं मूलप्रकृतिगळत्कृष्टप्रदेशबंधक्के गुणस्थानदोळ स्वामित्वमं पेळ्दपरु : आउक्कस्सपदेसं छत्तुं मोहस्य णव दु ठाणाणि । सेसाणं तणुकसाओ बंधदि उक्कस्सजोगेण ॥२११॥ बायुरुत्कृष्टप्रवेशं षडतीत्य मोहस्य नव तु स्थानानि । शेषाणां तनुकषायो बध्नात्युत्कृष्टयोगेन ॥ पञ्चज्ञानावरणपश्चान्तरायाः निद्राप्रचलाचक्षुरचक्षुरवषिकेवलदर्शनावरणानि अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायालोभभयजुगुप्साश्चेति त्रिंशतोऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धश्चतुर्विकल्पो भवति ॥२०९॥ अथोत्कृष्टबन्धस्य सामग्रीविशेषमाह प्रदेशोत्कृष्टं उत्कृष्टयोगः संजिपर्याप्त एव प्रकृतिबन्धाल्पतरः करोति । जघन्ये विपरीतं जानीहि । जघन्ययोगासंश्यपर्याप्तप्रकृतिबन्धबहुतर एव जघन्यप्रदेशे बन्धं करोतीत्यर्थः ॥२१०॥ अथ मूल प्रकृतीनां २५ उत्कृष्टप्रदेशबन्धस्य गुणस्थाने स्वामित्वमाह पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा, प्रचला, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण. अप्रत्याख्यान. प्रत्याख्यान और संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोग य और जुगुप्सा इन तीसका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चार प्रकार हैं ॥२०९।। आगे उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्री कहते हैं जो जीव उत्कृष्ट योगसे युक्त होनेके साथ संझी और पर्याप्त होता है तथा थोड़ी प्रकृतियोंका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। और जो उससे विपरीत होता है अर्थात् जघन्य योगसे युक्त होता है, असंज्ञी और अपर्याप्त होता है तथा बहुत प्रकृतियोंका बन्ध करता है वह जघन्य प्रदेशबन्ध करता है ।।२१०॥ आगे मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामिपना गुणस्थानोंमें कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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