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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ૪૬૭ मणुसिणि एत्थीसहिदा तित्थयराहारपुरिससंदणा। पुण्णिदरेव अपण्णे सगाणुगदिआउगं णेयं ॥३०१॥ मनुष्यां स्त्रीसहितास्तीर्थकराहारपुरुषषंढोनाः । पूर्णेतर इव अपूर्णे स्वानुपू०व्यंगत्यायुर्जेयं॥ मानुषियोळुदययोग्यप्रकृतिगळु तो भतारप्पुर्वते दोडे पर्याप्तमनुष्यनोलु पेन्दुदययोग्यप्रकृतिगळ्नूररोळ स्त्रीवेदमुं कूडि तीर्थकरनाममुमनाहारकद्वयमुमं पुरुषवेदमुमं षंढवेदमुमनितय्दु ५ प्रकृतिगळं कळेदोडे तावन्मात्रमयप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टियोदयच्छेदं मिथ्यात्वप्रकृतियों देयक्कुं १। सासादननोळनंतानुबंधिचतुष्टयमुमसंयतनोळ मनुष्यानुपूर्योदयमिल्लप्पुदरिनविल्लि व्युच्छित्तियक्कुमंतग्दु ५। मिश्रनोळ मिश्रप्रकृतियों के छेदमक्कु-१। मसंयतनोळ द्वितीयकषायचतुष्टयमुं ४ दुर्भगमुमनादेयमुमयशस्कोत्तियुमितेळ, प्रकृतिगढ दयच्छेदमकुं।७। देशसंयतनोळ तृतीयकषायचतुष्कमुं ४ नोचैगर्गोत्रमुर्मितम्, प्रकृतिगळ दयव्युच्छित्तियेप्पुवु । ५। १० ____ मानुष्युदययोग्यप्रकृतयः षण्णवतिः पर्याप्तमनुष्योक्तशते स्त्रीवेदं निक्षिप्य तीर्थकरत्वाहारकद्वयपुंषंढवेदानामपनयनात् । तत्र मिथ्यादृष्टी उदयव्युच्छेदो मिथ्यात्वं । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं मनुष्यानुपूव्यं च असंयतेऽनुदयात् । मिश्रे मिश्रप्रकृतिः । असंयते द्वितीयकषायचतुष्कदुभंगानादेयायशस्कीर्तयः । देशसंयते तृतीयकषायचतुष्कं नीचर्गोत्रं च । प्रमत्ते स्त्यानगृद्धित्रयमेव । अप्रमत्तापूर्वकरणयोः गुणस्थानवत् चतुःषट् । अनिवृत्तिकरणभागभागेषु क्रमेण स्त्रीवेदसंज्वलनक्रोधमानमायाः । सूक्ष्मसांपराये सूक्ष्मलोभः । उपशांतकषाये वज्रनाराचं नाराचं । क्षीणकषाये षोडश । सयोगे त्रिंशत् । अयोगे तीर्थकृत्त्वाभावात् एकादश । एवं सति मिथ्यादृष्टी - १२. क्षीणकषायमें दो मिलाकर अनुदय तैतालीस । उदय सत्तावन । व्युच्छित्ति सोलह । १३. सयोगीमें सोलह मिलाकर तीर्थकरका उदय होनेसे अनुदय अंठावन । उदय बयालीस । व्युच्छित्ति तीस । १४. अयोगीमें तीस मिलाकर अनुदय अठासी । उदय बारह ।।३००॥ मानुषीके उदययोग्य प्रकृतियाँ छियानवे । क्योंकि पर्याप्त मनुष्यके कही गयी सौ प्रकृतियोंमें-से तीर्थंकर, आहारकद्विक, पुरुषवेद और नपुंसकवेद घटाकर स्त्रीवेद मिलानेसे छियानवे होती हैं । उसमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वको उदय व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मनुष्यानुपूर्वी की व्युच्छित्ति होती है, क्योंकि यहाँ असंयतके मनुष्यानुपूर्वीका उदय नहीं होता। मिश्रमें मिश्र प्रकृतिकी व्युच्छित्ति होती है। असंयतमें २५ दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति । देशसंयतमें तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और नीच गोत्र । प्रमत्तमें स्त्यानगृद्धि आदि तीन । अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें गुणस्थानोंकी तरह चार और छह । अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें स्त्रीवेद और अवेदभागमें संज्वलन क्रोध मान माया । सूक्ष्म साम्परायमें सूक्ष्म लोभ । उपशान्त कषायमें वज्रनाराच नाराच । क्षीणकषायमें सोलह । सयोगीमें तीस और तीर्थकरका अभाव होनेसे अयोगीमें ग्यारह । ऐसा होनेपर १. मिथ्यादृष्टिमें अनुदय मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका । उदय चौरानबे । २. सासादनमें एक मिलानेसे अनुदय तीन । उदय तिरानबे । व्युच्छित्ति पाँच । १. मगलेयप्पु । २. मत्तिगलु ५ । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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