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________________ प्रस्तावना ३७ समाधान-तीर्थकर नामकर्म की स्थिति कोटि-कोटि सागर प्रमाण है और तीर्थकरके भवसे पहलेके तीसरे भवमें उसका बन्ध होता है। इसका आशय यह है कि तीसरे भवमें उद्वर्तन-अपवर्तनके द्वारा उस स्थितिको तीन भवोंके योग्य कर लिया जाता है । शास्त्रकारोंने तीसरे भवमें जो तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका विधान किया है वह निकाचित तीर्थकर प्रकृतिके लिए है। निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य देती है किन्तु अनिकाचित तीथंकर प्रकृतिके लिए कोई नियम नहीं है वह तीसरे भवसे पहले भी बंध सकती हैविशेषणवती गा. ७९-८० । ६. आयुबन्ध तथा उसकी आवाधाके सम्बन्धमें मतभेदको दर्शाते हुए श्वे. पंचसंग्रहमें रोचक चर्चा इस प्रकार है देवायु और नरकायुकी उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है । तियंचायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । तथा चारों आयुओंको आबाधा एक पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण है। शंका-आयुके दो भाग बीत जानेपर जो आयुका बन्ध कहा है वह असम्भव होनेसे चारों गतियों में नहीं घटता । क्योंकि भोगभूमिया, मनुष्य और तियंच कुछ अधिक पल्यका असंख्यातवा भाग शेष रहनेपर परभवकी आयु नहीं बांधते, किन्तु पल्यका असंख्यातवा भाग शेष रहनेपर ही परभवकी आयु बांधते हैं । तथा देव और नारक भी अपनी आयुके छह माससे अधिक शेष रहनेपर परभवकी आयु नही बांधते, किन्तु छह मास आयु शेष रहनेपर ही परभवकी मायु बषिते हैं। परन्तु उनकी आयुका त्रिभाग बहुत होता है। तियंच और मनुष्योंकी आयुका त्रिभाग एक पल्य तथा देव और नारकोंकी आयुका त्रिभाग ग्यारह सागर होता है। उत्तर-जिन तियंच और मनुष्योंकी आयु एक पूर्वकोटि होती है उनकी अपेक्षासे ही एक पूर्वकोटिके विभाग प्रमाण आबाधा बतलायी है । तथा यह बाधा अनुभूयमान भव सम्बन्धी आयुमें हो जाननो चाहिए, परभव सम्बन्धी आयुमें नहीं। क्योंकि परभव सम्बन्धी आयुको दलरचना प्रथम समयसे ही हो जाती है उसमें बाबाधाकाल सम्मिलित नहीं है । अतः एक पूर्वकोटिकी आयुवाले तिर्यच और मनुष्योंकी परभव सम्बन्धी बायुको उत्कृष्ट आबाधा पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण होती है। शेष देव, नारक और भोगभूमियोंके परभवको आयुकी आबाषा छह मास होती है। और एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवोंके अपनी-अपनी आयुके विभाग प्रमाण उत्कृष्ट आबाधा होती है। अन्य आचार्य भोगभमियाँके परभवकी आयुकी आबाधा पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहते हैं । -गाथा २४४-२४८ । चन्द्रसूरिरचित संग्रहणीसूत्रमें इसी बात को और भी स्पष्ट करके लिखा है-कहा है-देव, नारक और असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तियंच छह मासको आयु शेष रहनेपर परभवको आयु बांधते हैं। शेष निवपक्रम मायुवाले जीव अपनी आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर परभवकी आय बांधते हैं । और सोपक्रम आयुवाले जीव अपनी बायुके त्रिभागमें अथवा नौवें भागमें, अथवा सत्ताईसवें भागमें परभवकी आयु बांधते हैं । यदि इन त्रिभागोंमें भी आयका बन्ध नही कर पाते तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें परभवकी आयु बांधते हैं। गो. कर्मकाण्डमें आयुबन्धके सम्बन्धमें साधारण रूपसे तो यही कथन किया है। किन्तु देव, नारक और भोगभूमियोंकी छह मास प्रमाण आबापाको लेकर उसमें मौलिक भेद है। कर्मकाण्डके मतानुसार छह मास शेष रहनेपर आयुबन्ध नहीं होता, किन्तु उसके त्रिभागमें आयुबन्ध होता है। यदि उस त्रिभागमें भो आयुबन्ध न हो तो छह मासके नौवें भागमें आयुबन्ध होता है। सारांश यह है कि जैसे कर्मभूमिज मनुष्य और तियंचोंमें अपनी-अपनी पूरी आयुके त्रिभागमे परभवकी आयुका बन्ध होता है उसी प्रकार देव, नारक और भोगभूमिजोंमें अन्तिम छह मासके त्रिभागमें आयुबन्ध होता है। दिगम्बर परम्परामें यही मत मान्य है। केवल भोगभूमिजोंको लेकर मतभेद है। किन्हींका मत है कि उनमें नौ मास आयु शेष रहनेपर उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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