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________________ गो० कर्मकाण्ड की सत्ता विकल्पसे होती है। तीर्थकर और आहारककी सत्तावाला मिथ्यादष्टि गुणस्थानमें नहीं आता। तीर्थकरकी सत्तावाला यदि मिथ्यात्वमें आता है तो अन्तर्मुहर्त के लिए आता है। २. कर्मकाण्ड गाथा २६ में कहा है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वरूपी भावयन्त्रके द्वारा मिथ्यात्व प्रकृतिका द्रव्य मिथ्यात्व, सभ्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परामें कार्मिकोंको तो यही मत मान्य है किन्तु सैद्धान्तिकोंका मत भिन्न है। विशेषावश्यक भाष्यकी गाथा ५३. की टोकामें हेमचन्द्रसरिने लिखा है सैद्धान्तिकोंका मत है कि कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उस प्रकारको सामग्रीके मिलने पर अपूर्वकरणके द्वारा मिथ्यात्वके तीन पुंज करता है और शुद्ध पुंज अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुभव न करता हुआ, औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त किये बिना ही, सबसे पहले क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। तथा कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव यथाप्रवृत्त आदि तीन करणोंको क्रमसे करके अन्तरकरण करनेपर औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। किन्तु वह मिथ्यात्वके तीन पंज नहीं करता। इसीसे औपशमिक सम्यक्त्वके छूट जानेपर वह जीव नियमसे मिथ्यात्वमें आता है।...........किन्तु कर्मशास्त्रियोंका मत है कि सभी मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय यथाप्रवृत्त आदि तीन करणोंको करते हुए अन्तरकरण करते हैं और ऐसा करनेपर उन्हें औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। ये जीव मिथ्यात्वके तीन पुंज अवश्य करते हैं। इसीलिए उनके मतसे औपशमिक सम्यक्त्वके छूट जानेपर जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है। तथा श्वे. कर्म प्रकृति उसकी चूणि और श्वे. पंचसंग्रहके रचयिताओंका मत है कि उपशम सम्यक्त्वके प्रकट होनेसे पहले अर्थात् मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें द्वितीय स्थितिमें वर्तमान मिथ्यात्वके तीन पुंज करता है। और लब्धिसारके मतसे जिस समय सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसी समय तीन पुंज करता है। ३. कर्मकाण्ड गा. ३३३ में सासादन गुणस्थानमें आहारकका सत्त्व स्वीकार नहीं किया है। किन्तु श्वे. कर्मग्रन्थमें स्वीकार किया है। कर्मकाण्ड गा. ३७३ से यह स्पष्ट है कि सासादनमें आहारककी सत्ताको लेकर कर्मशास्त्रियोंमें मतभेद है । एक पक्ष उसकी सत्ता मानता है, दूसरा पक्ष नहीं मानता । ४. कर्मकाण्ड गा. ३९१ में 'णत्थि अणं उवसमगे' पदके द्वारा यह बतलाया है कि उपशमणिमें अनन्तानुबन्धीके सत्त्वको लेकर कार्मिकोंमें मतभेद है । श्वे. परम्पराकी कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थमें भी अनन्तानुबन्धीकी सत्ताको लेकर मतभेद है। कर्मप्रकृति और पंचसंग्रहमें सातवें गुणस्थान तक ही अनन्तानुबन्धीको सत्ता स्वीकार की गयी है किन्तु कर्मग्रन्थमें ग्यारहवें गुणस्थान तक सत्ता स्वीकार की गयी है । कर्मप्रकृतिका मत है जो चारित्रमोहनीयके उपशमका प्रयास करना है वह अवश्य ही अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करता है। कर्मकाण्डमें दोनों मतोंको स्थान दिया गया है। ५. तीर्थकरनामकर्मकी जघन्य स्थिति भी अन्तःकोटी-कोटी सागर बतलायी है । उसको लेकर श्वेताम्बर कर्मसाहित्यमें शंका-समाधान इस प्रकार है शंका-यदि तीर्थकरनामकर्मकी जघन्यस्थिति भी अन्तःकोटोकोटी सागर है तो तीर्थकरकी सत्तावाला जीव तियंचगतिमें जाये बिना नहीं रह सकता। क्योंकि उसके बिना इतनी दीर्घ स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती। किन्तु तियंचगतिमें तीर्थकरनामकी सत्ताका निषेध किया है। तथा तीर्थकरके भवसे पूर्वके तीसरे भवमें तीथंकर प्रकृतिका बन्ध होना बतलाया है। अन्तःकोटी-कोटी सागरकी स्थिति में यह भी कैसे बन सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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