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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका इन्तु संज्ञिपर्याप्तापतोत्कृष्टजघन्यस्थितिबंधगळगे विशेषमं पेदपरु :footageदो ठिदिठाणं संखगुणिदमुवरुवरिं । ठिदिआयामो वि तहा सगठिदिठाणं व आबाहा ॥ १५० ॥ संज्ञिनस्तु अधस्तात् स्थितिस्थानं संख्यगुणितमुपय्र्युपरि स्थित्यायामोऽपि तथा स्वस्थितिस्थानमिव आबाधा ॥ संज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पं सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमप्रमाणं सा ७० को २ । तज्जघन्य स्थितिबंधविकल्पमन्तःकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणं । सा अन्तः कोटी २ । मल्लि आदी ठ्ठ प१३ | एंदिति मिथ्यात्व - १ अंते सुद्धे प ११ वड्ढिहिदे । प ११ । रूव संजुदे ठाणा । १ १७५ σ प्रकृतिस्थितिबंधस विकल्पंगळप्पुवंतागुत्तं विरलु। तु मत्ते संज्ञिनः संज्ञिजीवंगे। अधस्तात् गे संज्ञिपर्याप्त जघन्यस्थितिबंधं मोदगोंड उपर्युपरि संज्ञ्यपर्याप्तजघन्यस्थिति संश्यपोत्कृष्ट १० संज्ञिपर्याप्तोत्कृष्टस्थितिबंधविकल्पंगळंतराळंगळोळ संभविसुव स्थितिस्थानं स्थितिबंधविकल्पंगळु संख्यगुणितं संख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु । स्थित्यायामोऽपि तथा । संज्ञिपर्याप्तजघन्यस्थित्यायाममं नोडलुम पर्याप्त संज्ञिजीवजघन्यस्थितिबंधायाममुमदं नोडलुमपर्याप्त संज्ञिजीवोत्कृष्ट स्थितिबंधायाममुमदं नोडल पर्याप्तसंज्ञिजीवोत्कृष्ट स्थितिबंधायाममुमा स्थितिबंधविकल्पंगळतं ते उपर्युपरि संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य तत्प्रागुक्तचतुः स्थितिविकल्पेषु तु पूर्वोक्त केन्द्रियाद्यसंज्ञयंताना उक्ततदष्टचतुभ्य १५ विशेषः । स कथ्यते - अधस्तात्संज्ञिपर्याप्त कजघन्य स्थितिबन्धविकल्पमादि कृत्वा उपर्युपरि तच्चतुर्विकल्पांतरालेषु स्थितिस्थानं स्थितिविकल्प प्रमाणं संख्यगुणितं संख्यातगुणितक्रमं भवति । स्थित्यायामोऽपि तथा तच्चतुः स्थितिविकल्पानां आयामोऽपि तथा उपर्युपरि संख्यातगुणितक्रमो भवति । तद्यथा संज्ञिनो मिथ्यात्वस्थितिः उत्कृष्टा सप्ततिकोटीकोटिसागरोपमाणि इति द्विसंख्यातगुणितपत्यमात्री प Jain Education International ५ For Private & Personal Use Only आगे संज्ञी पचेन्द्रिय में पूर्व में कहे पर्याप्तकका उत्कृष्ट, अपर्याप्तकका उत्कृष्ट, अपर्याप्तक का जघन्य और पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धके भेदोंमें जो विशेष बात है उसे कहते हैं । संज्ञी पञ्चेन्द्रियके ऊपर कहे चार भेदों में पूर्वोक्त एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी पर्यन्त कहे आठ, चार, चार आदिसे अन्तर है । वही कहते हैं 'ट्ठादो' अर्थात् संज्ञी पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे लगाकर ऊपर-ऊपर उन चार २५ भेदों के अन्तरालों में स्थितिके भेदोंका प्रमाण क्रमसे संख्यातगुणा- संख्यातगुणा होता है । तथा स्थितिका आयाम अर्थात् समयोंका प्रमाण भी ऊपर-ऊपर क्रमसे संख्यातगुणित होता है । उसे ही आगे कहते हैं संज्ञी जीवके मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । सो दो बार संख्यातसे पल्यको गुणा करनेपर उतनी होती है । तथा जघन्यस्थिति मिध्यादृष्टिकी अपेक्षा ३० १. व तत्तच्चतु विकल्पेभ्यो । २० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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