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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गच्छतीत्यायुः। तस्य का प्रकृतिः भवधारणता। किंवत् शृंखलाकोळमें बुदत्थं । हलिवत् । नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृतिः नरनारकादिनानाविधकरणता। किंवत् चित्रकावरत् । उच्चनीचं मयतीति गोत्रं । तस्य का प्रकृतिः उच्चनीचत्वप्रापकता। किंवत् कुंभकारवत् । दातृपात्रयोरंतरमेतीत्यंतरायः। तस्य का प्रकृतिः विघ्नकरणता । किंवत् भांडागारिकवत् ॥ ज्ञानावरणाविप्रकृतिगळ्गे यो पेन्द दृष्टांतमं पेळ्दपर पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्तकुलालभंडयारीणं । जह एदेसि भावा तहवि य कम्मा मुणेयव्वा ॥२१॥ पटप्रतीहारासिमद्यहलिचित्रकुलालभांडागारिकाणां। यथैतेषां भावास्तथापि च कर्माणि मन्तव्यानि। देवतामुखवस्त्रमुं राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारनुं मधुलिप्तासिधारयुं मद्यमुं हळियुं चित्रकनुं १० कुलालनु भांडागारिकनुमेब यथैतेषां भावाः एंतिवर भावंगळ तथापि च आ प्रकारंगाळदमे कर्माणि मंतव्यानि कमगळु बगेयल्पडुवउ । उत्तरप्रकृतिगळुत्पत्तिक्रममं पेदपरु : कोद्रववत् । भवधारणाय एति गच्छतीति आयुः । तस्य का प्रकृतिः? भवधारणता । किंवत् ? हलिवत् । नाना मिनोतीति नाम । तस्य का प्रकृतिः? नरनारकादि नानाविधकरणता । किंवत् ? चित्र कवत् । उच्चनीचं १५ गमयतीति गोत्रं । तस्य का प्रकृतिः उच्चनीचत्वप्रापकता। किंवत् ? कुंभकारवत् । दातपात्रयोरन्तरमेतीति अंतरायः। तस्य का प्रकृतिः ? विघ्नकरणता । किंवत! भांडागारिकवत् ॥२०॥ उक्तदृष्टान्तानाह देवतामुखवस्त्र-राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहार-मधुलिप्तासिधारा-मद्य-हलि-चित्रक-कुलाल-भाण्डागारि - काणां एतेषां भावा यथा तथैव कर्माणि मन्तव्यानि ॥२१॥ उत्तरप्रकृत्युत्पत्ति क्रममाह शहद लपेटी तलवारकी धारको चाटनेसे पहले सुख और फिर दुःख होता है। वैसे ही २० वेदनीय कर्म सुख-दुःखमें निमित्त होता है। जो जीवको मोहित करता है वह मोहनीय है । जेसे मदिरा, धतूरा या मादक कोदोंका सेवन करनेसे नशा होता है और सेवन करनेवाला असावधान हो जाता है वैसे ही मोहनीय आत्माको मोहित करने में निमित्त होता है। जो नवीन भव धारण करने में निमित्त है वह आयु है। जैसे सांकल या काठ आदिका फन्दा मनुष्यको नियत स्थानमें रोके रखता है वैसे ही आयुकर्म भी जीवको अमुक भवमें रोके २५ रखनेमें निमित्त होता है । जो नाना प्रकारके कार्य करता है वह नामकर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है वैसे ही नामकर्म जीवको नर नारक आदि रूप करता है । जो उच्च-नीच कहानेमें निमित्त है वह गोत्रकर्म है। जैसे कुम्हार मिट्टीके छोटे-बड़े बरतन बनाने में निमित्त है वैसे ही गोत्र जीवको उच्च-नीच बनानेमें निमित्त है। जो दाता और पात्रके मध्यमें आकर विघ्न डालता है वह अन्तराय है। जैसे भण्डारी दान देनेमें विघ्न ३० करता है उसी प्रकार अन्तरायकर्म दान आदिमें विघ्न करता है ॥२०॥ इस प्रकार देवताके मुखपर पड़ा वस्त्र, राजद्वारपर खड़ा द्वारपाल, शहद लपेटी तलवार, मदिरा, हलि, चित्रकार, कुम्हार और भण्डारीका जैसा स्वभाव होता है वैसा ही स्वभाव इन कर्मोंका भी जानना ।।२१॥ १. व शृङ्खलाहलिवत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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