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________________ १८० __ गो० कर्मकाण्डे चतुःसंज्वलनमुमें बी प्रकृतिपंचकक्के जघन्यस्थितिबंधमननिवृत्तिकरणं माकुं। तीत्यमुमाहारकद्वयमुबी प्रकृतित्रयक्के जघन्यस्थितिबंधमनपूर्वकरणं माळकुं। वैक्रियिकषट्कक्के जघन्यस्थितिबंधमनसंज्ञिजीवं माळकुमायुष्यंगळ्गे जघन्यस्थितिबंधमं संज्ञियुं वा मेणसंज्ञियं माकुं। अनन्तरमजघन्यस्थितिबंधादिगळ्गे संभविसुव साधादिभेदंगळं पेळ्दपर अजहण्णट्ठिदिबंधो चदुबिहो सत्तमूलपयडीणं । सेसतिये दुवियप्पो आउचउक्केवि दुवियप्पो ॥१५२॥ अजन्यस्थितिबंधश्चतुम्विधः सप्तमूलप्रकृतीनां। शेषत्रये द्विविकल्पः आयुश्चतुष्केऽपि द्विविकल्पः॥ आयुर्वज्जितजानावरणाद्यष्टविष प्रकृतिगो अजन्यस्थितिबंध साधनादि ध्रुवाध्रुवभेदवि १० चतुम्विधमक्कुं। शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रितयदोळ साधध्रुवभेवदिवं द्विविकल्पमक्कुमायुश्चतुष्टय. दोळमा द्विविकल्पमेयक्कुमपवादविनिम्मुक्तमिवक्के विषयमक्कुं। इल्लि विशेषमं पेब्दपर। संजलणसुहुमचोदसघादीणं चदुविधो दु अजहण्णो । सेसतिया पुण दुविहा सेसाणं चदुविधा वि दुधा ॥१५३॥ संज्वलनसूक्ष्मचतुर्दशघातीनां चतुविधस्तु अजघन्यः। शेषत्रितयाः पुद्विविधाः शेषाणां १५ चतुविधा अपि द्विधा ॥ एव बध्नाति पुंवेदचतुःसंज्वलनानां अनिवृत्तिकरण एव । तीर्थकृत्वाहारकद्वययोरपूर्वकरण एव । वैक्रियिकषट्कस्य असंख्येव आयुषः संज्ञी वा असंज्ञी वा ॥१५१॥ अथाजघन्यादीनां संभवत्साद्यादिभेदानाह आयुर्वजितसप्तविधमूलप्रकृतीनां अजघन्यस्थितिबन्धः साधनादिघ्र वाघ्र वभेदेन चतुर्विषो भवति शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टत्रितये साद्यऽधू वो द्वावेव । आयुष्कर्मणः अजघन्यादिबन्धचतुष्केऽपि तावेव द्वौ । अपवाद २० विनिर्मुक्तोऽस्य विषयो भवति ॥१५२॥ अत्र विशेषमाह करता है तथा पुरुषवेद, चार संज्वलन कषाय, इन पाँचका जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्तिकरण गणस्थानवी जीव करता है। तीर्थकर और आहारकदिकका जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव करता है। देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग इस वैक्रियिकषट्कका जघन्य स्थितिबन्ध २५ असंझी पश्चेन्द्रिय करता है। आयुकर्मकी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संज्ञी या असंही जीव करता है ॥१५॥ __ आगे अजघन्य आदि स्थितिके भेदोंमें होनेवाले सादि आदि भेदोंको कहते हैं___ आयुको छोड़ सात मूल प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवके भेदसे चार प्रकार है। और उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध सादि और ३० अध्रुवके भेदसे दो ही प्रकारके हैं । किन्तु आयुकर्मका चारों ही प्रकारका स्थितिबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो ही प्रकार है। यह कथन सन्देह रहित है अतः इसके विषयमें विशेष नहीं कहा है ॥१५२॥ उत्तर प्रकृतियोंमें कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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