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________________ गो० जीवकाण्ड अथवा जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। आउयं ॥९॥ जो भवधारणके प्रति जाता है वह आयुकर्म है। जो पुद्गल मिथ्यात्व आदि कारणोंके द्वारा नरक आदि भवधारण करने की शक्तिसे परिणत होकर जीवमें बद्ध होते हैं वे आयु नामक होते हैं । शंका-उस आयुकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-यदि आयुकर्म न हो तो देह की स्थिति नहीं हो सकती। णामं ॥१०॥ जो नाना प्रकारकी रचना करता है वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्योंके करनेवाले जो पुदगल जीवसे बद्ध हैं वे नाम संज्ञावाले हैं। गोदं ॥१२॥ जो उच्च-नीचकूलका बोध कराता है वह गोत्रकर्म है। उच्च और नीच कूलोंमें उत्पादक जो पुद्गल स्कन्ध मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जीवसे सम्बद्ध होता है उसे गोत्र कहते हैं। अंतरायं चेदि जो दोके मध्यमें आता है वह अन्तराय है। दान, लाभ, भोग, उपभोग आदिमें विघ्न करने में समर्थ पुद्गल स्कन्ध अपने कारणोंसे जीवसे सम्बद्ध होता है उसे अन्तराय कहते हैं। इस प्रकार मूल प्रकृतियाँ आठ ही हैं, क्योंकि आठ, काँसे उत्पन्न होनेवाले कार्योंसे अतिरिक्त कार्य नहीं पाया जाता । अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न इन आठ कर्मों के द्वारा एक-एक जीवके प्रदेशोंमें सम्बद्ध अनन्त परमाणुओंसे अनादिसे सम्बद्ध अमूर्त भी जीव मूर्तताको प्राप्त होकर घूमते हुए कुम्हारके चाककी तरह संसारमें भ्रमण करता है (षट्वं., पु. ६, पृ. ६-१४)। २. बन्धोदयसत्त्वाधिकार दूसरे अधिकारके प्रारम्भमें नेमिनाथ भगवानको नमस्कार करके बन्ध, उदय, सत्त्वसे युक्त स्तवको गुणस्थान और मार्गणाओंमें कहने की प्रतिज्ञा की है और उससे आगेकी गाथामें स्तव, स्तुति और धर्मकथाका स्वरूप कहा है। षट्खण्डागमके अन्तर्गत वेदनाखण्ड पुस्तक ९ में आगमोंमें उपयोगके भेद सूत्र द्वारा इस प्रकार 'जा तत्त्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियणा वा अणुपेक्खणा वा थयथुइधम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादियां ॥५५॥ इस सूत्रकी धवलाटीकामें कहा है-सब अंगोंके विषयोंकी प्रधानतासे बारह अंगोंके उपसंहारको स्तव कहते हैं। बारह अंगोंमें एक अंगके उपसंहारका नाम स्तुति है । एक अंगके एक अधिकारका नाम धर्मकथा है। कर्मकाण्ड गाथा ८८ में भी तीनों का यही स्वरूप प्रकारान्तरसे कहा है-समस्त अंगसहित अर्थका विस्तार या संक्षेपसे जिसमें वर्णन होता है उस शास्त्रको स्तव कहते हैं, सो कर्मकाण्डमें बन्ध, उदय, सत्त्वरूप अर्थका कथन समस्त अंगसहित यथायोग्य विस्तार या संक्षेपसे कहा गया है अतः उसे स्तव नाम दिया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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