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प्रस्तावना
२५
समाधान-द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करनेपर आवरण किये गये ज्ञानके भाग सावरण जीवमें भी होते हैं ; क्योंकि जीवद्रव्यसे भिन्न ज्ञानका अभाव है । अथवा ज्ञानके विद्यमान अंशोंसे आवृत ज्ञानके अंश अभिन्न है।
शंका-ज्ञानके आवृत और अनावृत अंश एक कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि राहु और मेधोंके द्वारा सूर्य और चन्द्रके आवृत और अनावृत भागों में एकता पायी जाती है।
शंका-ज्ञानको आवियमाण कैसे कहा ?
समाधान-अपने विरोधी द्रश्यका सामीप्य होनेपर भी जो मूलसे नष्ट नहीं होता उसे आश्रियमाण कहते है और दूसरेको आवारक कहते हैं । विरोधी कर्मद्रव्यका सामीप्य होनेपर भी ज्ञानका निर्मूल विनाश नहीं होता। वैसा होनेपर जीवके विनाशका प्रसंग आता है। इसलिए ज्ञान आद्रियमाण है और कर्मद्रव्य आवारक है।
शंका--जीव से भिन्न पुदगल के द्वारा जीवके लक्षण ज्ञानका विनाश कैसे किया जाता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जीवद्रव्यसे भिन्न घट-पट, स्तम्भ, बन्धकार आदि पदार्थ जीवके लक्षण ज्ञानके विनाशक पाये जाते हैं । अतः ज्ञानका आवारक पुद्गल स्कन्ध जो प्रवाहरूपसे अनादि बन्धनबद्ध है वह ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है ।
दर्शनावरणीयं ॥६॥
दर्शन गुणको जो आवारण करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है। जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व असंयम कषाय और योगके द्वारा कर्मरूपसे परिणत होकर जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त है और दर्शनगुणका प्रतिबन्धक है वह दर्शनावरणीय है।
वेदनीयं ॥७॥ जो वेदन या अनुभवन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। शंका-इस व्युत्पत्तिसे तो सभी कर्मोके वेदनीय होनेका प्रसंग आता है ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि रूढ़िवश कुशल शब्दकी तरह विवक्षित पुद्गलपुंजमें ही वेदनीय शब्दकी प्रवृत्ति है। अथवा जो वेदन करता है वह वेदनीय कर्म है। जीवके सुख-दुःखके अनुभवनमें कारण जो पुदगल स्कन्ध मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश कर्मरूप परिणत होकर जीवके साथ सम्बद्ध होता है वह वेदनीय कहाता है।
शंका-उसका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ?
समाधान-उसके अभावमें सुख और दुःखरूप कार्य नहीं हो सकते । कार्य कारणके अभाव में नहीं होता; क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता।
मोहणीयं ॥८॥ जो मोहित किया जाता है वह मोहनीय कर्म है। शंका-ऐसो व्युत्पत्तिसे जीवके मोहनीय होनेका प्रसंग आता है ।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि जीवसे अभिन्न और कर्म संज्ञावाले पदगल द्रव्यमें उपचारसे कर्मत्वका आरोप करके उस प्रकारको व्युत्पत्ति की है।
प्रस्ता०-४
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