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________________ गो० कर्मकाण्डे मल्लवु। औदारिकादिपंचशरीरंगळ बंधदोळुमुदयदोळं तंतम्म बंधनसंघातंगळ्गंतर्भाव माडल्पटुदरिदं पृथक् बंधदोळमुदयदोळं पेळल्पडवे बुदत्थं । वर्णचतुष्केऽभिन्ने गृहीते वर्णसामान्यमुं गन्धसामान्यमुं रससामान्य, स्पर्शसामान्यमुमभेदविवर्तयिदं कैकोळल्पडुतिरलु सत्वकथनमल्ल दुळिद बंधदोळमुदयदोळं। चत्वारि नाल्कु नामकर्म प्रकृतिगळप्पुवु। शेषपदिनारुं प्रकृतिगळ्ग५ पृथक्कथनमिल्ले बुवत्थमंतागुत्तिरलु बंधप्रकृतिगळुमुदयप्रकृतिगळं सत्वप्रकृतिगळुमेनितेनितप्पुमें दोडे नाल्कु गाथासूत्रंगळिंदं पेळ्दपरु : पंच णव दोण्णि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ बंधपयडीओ ॥३५॥ पंच नव द्वे षड्विशतिरपि च चतस्रः क्रमेण सप्तषष्टिढे च पंच च भणिताः एता १० बंधप्रकृतयः॥ पंचज्ञानावरणंगळं नवदर्शनावरणंगळं द्विवेदनीयंगळं षड्विशतिमोहनीयंगळुमे दोर्ड बंधकालदोळु दर्शनमोहनीयमों दे मिथ्यात्वमें बुदरिदं सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिगळे रडु उदयसत्वंगळोळे पेळल्पडुगुमप्पुरिदमी बंधप्रकृतिगळोळु मोहनीयद षड्विशत्युत्तरप्रकृतिगळ्पेळल्प टुवु। चतुरायुष्यंगळं सप्तषष्टिनामप्रकृतिगळुमेकेदोर्ड बंधनसंघातंगळ्पत्तुं वर्णादिषोडशप्रकृतिगळुमिन्तु षड्विशतिप्रकृतिगळं बिटु शेषसप्तषष्टिनामप्रकृतिगळु पेळल्पटुवु । द्विगोत्रकम्मंगळं पंचान्तरायकम्मंगळुमिन्तु ज्ञानावरणादिपाठक्रमदिदमिविनितुं कूडि विंशत्युत्तरशतप्रकृतिगळ्बंधयोग्यंगळप्पुर्वेदु वीतरागसर्वज्ञरिदं पेळल्पटुवु। ५। ९।२। २६ । ४ । ६७। २। ५। कूडि १२० ॥ प्रकृती न भवतः । तत्र पृथग्नोक्तावित्यर्थः । वर्णचतुष्के वर्णगन्धरसस्पर्शसामान्यचतुष्के अभिन्ने अभेदविवक्षया २० एकै कस्मिन्नेव गृहीते सत्त्वादन्यत्र बन्धोदययोश्चतस्र एव प्रकृतयो भवन्ति । शेषषोडशानां पृथक् कथनं नास्तीत्यर्थः ॥३४॥ तथा सति ता बन्धोदयसत्त्वप्रकृतयः कति ? इति चेत् चतुभिर्गाथाभिराह पञ्च ज्ञानावरणानि नव दर्शनावरणानि द्वे वदनीये षड्विंशतिर्मोहनीयानि । कुतः ? मिश्रसम्यक्त्वप्रकृत्योरुदयसत्त्वयोरेव कथनात् । चत्वारि आयूंषि । सप्तषष्टिर्नामानि कुतः ? दशबन्धनसंघातषोडशवर्णादीनामन्तर्भावात् । द्वे गोत्रे । पञ्चान्तराया इत्येता विंशत्युत्तरशतबन्धयोग्या भणिताः सर्वज्ञैः ॥३५॥ २५ पाँच बन्धन और पाँच संघात बन्ध और उदय प्रकृतियोंमें पृथक नहीं लिये गये हैं। अर्थात् बन्ध और उदयमें वे दस पृथक नहीं कहे हैं, शरीरनामकममें ही गर्भित कर लिये हैं। तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श इन चारोंको सामान्य रूपसे अभेदविवक्षामें एक-एक ही ग्रहण करनेपर सत्त्वके अतिरिक्त बन्ध और उदयमें चार ही प्रकृतियाँ होती हैं, शेष सोलहको पृथक नहीं कहा है॥३४॥ ऐसा होनेपर बन्ध, उदय और सत्त्व प्रकृतियाँ कितनी हैं यह चार गाथाओंसे कहते हैं-पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, क्योंकि मिश्र और सम्यक्त्वप्रकृति उदय और सत्त्वमें ही कही गयी हैं, चार आयु, सड़सठ नाम; क्योंकि दस बन्धन दस संघात और सोलहवर्णादिका अन्तर्भाव कर लेते हैं, दो गोत्र, पाँच अन्तराय इस प्रकार ये एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्धयोग्य सर्वज्ञदेवने कही हैं ॥३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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