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________________ गो० कर्मकाण्डे एकान्तत्रिंशत् ओ दुगुंदे मूवत्तु २९ । अयोगिकेवलियोछ त्रयोदश पविमूरु १३ । यिन्तु प्रकृतिगळुदयविधानमवक्कु-। मितुक्तप्रकृतिगळगे तत्तद्गुणस्थानचरमदो दयव्युच्छित्तियेबुदय॑मो पक्षदोळु एकेंद्रियजाति नामकर्ममुं स्थावरनामकर्ममुं द्वींद्रिय त्रोंद्रिय चतुरिंद्रियजातिनामकम्मंगळुमें बी प्रकृतिपंचकोदयं सासादनसम्यग्दृष्टियोळिल्लेके दोडे आप्रकृतिगल्गुदयव्युच्छित्ति मिथ्यादृष्टियोळक्कुमप्पुरिदं। उपरितनगुणस्थानेषूदयाभाव उदयव्युच्छित्तिरिति उपरितनगुणस्थानदो दयाभावमक्कुमप्पोडा प्रकृतिगळगे केळगणगुणस्थानदोलुदयक्के विद्यमानदिदमुदयव्युच्छित्तिाकैद व्यपदेशमक्यु । सयोगिकेवलिगुणस्थानदोळेकान्नत्रिंशत्प्रकृतिगल्गुदयव्युच्छित्तियेतेंदोडी पक्षोळु नानाजीवापेक्षयिदं सदसवेद्यंगळगुदय सद्भावदिदमों दक्कं व्युच्छित्तियिल्लप्पुरिद मोंटुगुंदे मुक्त प्रकृतिगळुदयव्युच्छित्तियक्कुमदु कारणमागि अयोगिकेवलियोळ येकतरोदयमागुत्तं विरलु तकदादो पदिमूरु प्रकृतिगळ्गुदय मक्कुमितागुत्तं विरलु मिथ्यादृष्टियो दयप्रकृतिगळु नूरपदिनेछु ११७ । अनुदय प्रकृतिगळु तीर्थमुमाहारद्वय, मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेंबी अय्दुं प्रकृतिगळप्पुवु ५। सासादनसम्यग्दृष्टियोळु नरकानुपूर्धसहितमागि पन्नोंदु प्रकृतिगळ्कूडिवनुदय प्रकृतिग पदिनारप्पुवु १६। उदयप्रकृतिगळु नूरारु १०६ । मिश्रगुणस्थानदोळु शेषानुपूव्यंत्रि तयमुमनंतानुबंधिचतुष्कं गूडिदेठं प्रकृतिगळु सहितमागि अनुदयप्रकृतिगळिप्पत्त मूरप्पुववरोळु १५ सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियं तेगेदुदयदोळु कूडिदोडनुदयंगलिप्पत्तेरडु २२ । उदय प्रकृतिगळु नूरु १०० । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानोळु मिश्रप्रकृतियं तेगदनुदयंगळोळु कूडिदोडिप्पत्तमूरवरोळ सम्यक्त्वप्रकृति युमनानुपूर्व्यचतुष्टयमुमं तेगेदुदयप्रकृतिगळो कूडिदोडे अनुदयंगळु पदिनेंटु १८ । उदयसयोगकेवलिन्येकान्नत्रिंशत् कुतः सदसद्वेद्योदययो नाजीवापेक्षया एकस्यापि व्युच्छित्यभावात् । अयोगकेव. लिनि त्रयोदश । एवं सति मिथ्यादृष्टावुदयः सप्तदशोतरशतं । अनुदयः तीर्थाहार कद्वयमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतयः २० पंच । सासादने नारकानुपूव्यं न इत्येकादश मिलित्वा अनुदयः षोडश, उदयः षडुत्तरशतं । मिश्रेऽनुदयः आगे मिश्रमें एक, असंयतमें सतरह, देशसंयतमें आठ, प्रमत्तमें पाँच, अप्रमत्तमें चार, अपूर्वकरणमें छह, अनिवृत्तिकरणमें छह, सूक्ष्म साम्परायमें एक, उपशान्त कषायमें दो, क्षीण कषायमें दो और चौदह, तथा सयोग केवलीमें उनतीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती है। क्योंकि सयोग केवलीमें नाना जीवों की अपेक्षासे सातावेदनीय और असातावेदनीय में२५ से एककी भी व्युच्छित्ति नहीं होती। अयोगकेवलीमें तेरह की व्युच्छित्ति होती है। १. इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उदय एक सौ सतरह । तीर्थकर, आहारकद्विक, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयको उदय न होनेसे अनुदय पाँचका।। २. सासादनमें उदय एक सौ छह । क्योंकि मिथ्यात्वमें दसकी व्युच्छित्ति हुई। और नरकानुपूर्वी का उदय न होनेसे ५ + १०+१=सोलह का अनुदय ।। ३. मिश्रमें उदय सौ का । यहाँ आनुपूर्वोका उदर नहीं होता। तथा मिश्रमोहनीयका उदय होता है । अतः सासादनमें अनुदय सोलह और उदय व्युच्छित्ति चार तथा तीन आनुपूर्वीका अनुदय, सब मिलकर १६+ ४ + ३ = २३ हुईं। उनमें से मिश्रमोहनीय उदयमें आयी। अतः शेष बाईसका अनुदय रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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