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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ३३३ द्विगुणिसिवनितकुमवर प्रमाणमिदु ० ० २ यिदत्तलानु प्रतरासंख्येयभागमक्कुमदु संकिसल्वेडे के बोडे "यिगिठाणपड्ढयाओवग्गणसंखापदेसगुणहाणी। सेडियसंखेज्जदिमा असंखळोगा हु अविभागा॥" एंबी सूत्राभिप्रायदिदं श्रेण्यसंख्यातेकभागमेयककु । मी जघन्ययोगस्थानव मेले सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पद्ध'कंगळु पच्चुत्तं पोगियों दोदपूर्वस्पद्ध'कंगळ पर्चुत्तं पोगियुत्कृष्टस्थान पुटुगुम बुदं मुंदणसूत्रद्वदिदं पेळदपरु : अंगुलअसंखभागप्पमाणमेत्तावरफड्ढया उड्ढी । अंतरछक्कं मुच्चा अवरहाणादु उक्कस्सं ॥२३०॥ अंगुलासंख्यभागप्रमाणमात्रावरस्पद्धकवृद्धिरन्तरषट्कं मुक्त्वावरस्थानावुत्कृष्टं ॥ अवरस्थानात् सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यप याप्तभवंगळ चरमभवद त्रिविग्रहंगळोळु प्रथमविग्रहदुपपादयोगसर्वजघन्यस्थानवत्तणिननन्तरस्थानं मोदल्गोंडु प्रथमस्य हानिर्वा नास्ति वृद्धिा १० नास्ति ये दनंतरयोगस्थानवो वृद्धियुटप्पुरिदमा द्वितीयस्थानं मोदल्गोंडु सर्वोत्कृष्टयोगस्थानं पुटुवन्नेवरं सांतरनिरंतर सांतरनिरंतरगळेब त्रिविधयोगस्थानंगळोळु सर्वत्र निरंतरक्रमदिदं सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्र प्रमितंगळु जघन्यस्पर्द्धकंगळु । युगपत् स्थान स्थानं प्रति पूर्वपूर्वस्थानंगळ मेळे वृद्धियागियुत्तरोत्तरस्थानंगळागुत्तं पोपुवन्तु पच्चुत्तं पोगुत्तं विरलु । फ १ । इ व वि १६ ४ ९ ९२ लब्धमेतावंति स्पधंकानि ९९२ । साधिकद्विगुणगुणगुणहानिस्पर्धकशलाका- १५ वर्गमात्राणि ३.२ । इमानि प्रतरासंख्येयभाग इति नाशंकनीयं 'इगि ठाणप्फड्डयाओ' इति सूत्रेण श्रेण्य संख्यातकभागप्रतिपादनात् । ॥२२९॥ तज्जघन्ययोगस्थानस्योपरि सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्धकानि वधित्वा वर्णित्वा एकैकमपूर्वस्पर्षक, एवं गत्वोत्कृष्टस्थानमुत्पद्यते इत्यग्रतनसूत्रद्वयेन आह तस्मात् सूक्ष्मनिगोदलव्यपर्याप्तकस्य सर्वजघन्यचोपपादयोगस्थानादनंतरस्थानमादिं कृत्वा सर्वोत्कृष्टयोगस्थानोत्पत्तिपर्यतं सांतरेषु निरंतरेषु सांतरनिरंतरेषु च अमोषु योगस्थानेषु निरंतरं सूच्यंगुलासंख्यातेकभाग- २० मात्राणि जघन्यस्पधंकानि युगपत्प्रतिस्थानं वर्धते तदा एकैकमुत्तरोत्तरस्थानमुत्पद्यते ॥२३०॥ तथा सति mr.mvwww अंक संदृष्टि आठ है। इत्यादि सब पूर्ववत् जानना। ऊपर टीकामें अविभाग प्रतिच्छेदोंके मिलानेका विधान विस्तारसे किया है। यह जघन्य योगस्थानका कथन हुआ ॥२२९।। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके सबसे जघन्य उपपाद योगस्थान होता है। उसके अनन्तरवर्ती स्थानसे लेकर सर्वोत्कृष्ट योगस्थानकी उत्पत्ति पर्यन्त सान्तर, निरन्तर और २५ सान्सरनिरन्तर सब ही योगस्थानों में से प्रत्येक योगस्थानमें निरन्तर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक युगपत् बढ़ते हैं। तब उत्तरोत्तर एक-एक स्थान उत्पन्न होता है ॥२३०॥ विशेषार्थ-जघन्य स्थानमें प्रथम गुणहानिके प्रथम स्पर्धकमें जितने अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं उनसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुने अविभाग प्रतिच्छेद उससे ३० ऊपरके दूसरे योगस्थानमें होते हैं। इसी प्रकार दूसरेसे तीसरे में सूच्यंगुलके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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