________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
५५७
रोहणं मापवग पूर्व्वकरणगुणस्थानवोळ, नूर मूवते टु प्रकृतिसत्यमक्कु - १३८ । मेके दोडे अबद्धायुष्यरप्प भुज्यमानमनुष्यायुष्यरु असंयतादि चतुग्र्गुणस्थानं गळोळेल्लिया वोडं सप्तप्रकृतिगळ' डिसि क्षपकश्रेण्या रोहणमं माळपरप्पुर्वारवमपूव्वं करणगुणस्थानदोळ सप्तप्रकृतिगळ नरकतिध्येदेवायुष्यत्रयमुमंतु दशप्रकृतिगळगसत्वमक्कुं १० ॥
मच्छे सासण मिस्से सुष्णं एक्केक्कगं तु बिट्ठाणे | विरदापमत्त पुढचे सुगडसुरणं च बोच्छिष्णा ॥ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानं मोवल्गोड मेलण गुणस्थानंगळोळु क्षपियिसुव प्रकृतिगळ क्रममं
पेदपरु :
सोलट्ठेक्किगिछक्कं चदुक्कं बादरे अदो एक्कं । खीणे सोलमजोगे बाबत्तरि तेरुवंतंते ॥ ३३७॥
१०
षोडशाकषट्कं चतुष्कं बादरेऽतः एकं । क्षीणे षोडशायोगे द्वासप्ततिस्त्रयोदशोपांतेंते ॥ बादरे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवोलु क्रर्मादिदं षोडश अष्ट एक एक षट्कं चतुष्कं नाक डे - योलो दो दक्के सत्वव्युच्छित्तियक्कुं । १ । १ । १ । १ । अतः अल्लिदं मेले सुहमे सूक्ष्मसांपरायनोळ एकं ओ दु सत्वव्युच्छित्तियक्कुं १ । क्षीणे षोडश क्षीणकषायनोळु पदिनारुं प्रकृतिगळु सत्वव्युच्छि - तिय १६ ॥ सयोगकेवलियो सत्वव्युच्छित्तिशून्यमक्कुमयोगकेवलियोळ उपांते द्विचरमसमय- १५ बोळ द्वासप्रतिप्रकृतिगळु सत्वव्युच्छित्तिंगळप्पुवु ७२ । अंते चरमसमयवोळ त्रयोदश पविमूखं प्रकृतिगळ सत्वव्युच्छित्तियप्पु १३ ।
५
क्षपकश्रेण्यारूढानामपूर्वकरणेऽष्टत्रिंशदुत्तरशतं । १३८ । सप्तप्रकृतीनामसंयतादिचतुर्गुणस्थानेष्वेकत्र क्षपितानरकतिर्यग्देवायुषां चाबद्धायुकत्वेनासत्त्वात् ॥ ३३६ ॥ अनिवृत्तिकरणादिषु क्षययोग्यानां क्रममाह
अनिवृत्तिकरणगुणस्थाने क्रमेण षोडशाष्टावेकमेकं षट्कं चतुष्ककं सत्त्वव्युच्छित्तिः । अत उपरि सूक्ष्म- २० सांपरायेप्येकं । क्षीणे षोडश । सयोगे शून्यं । अयोगे द्विचरमसमये द्वासप्ततिः, चरमसमये त्रयोदश ॥ ३३७ ॥
किन्तु इन गुणस्थानोंमें क्षायिक सम्यग्दृष्टीके सात-सात प्रकृति कम होती है। अपूर्वकरणादिमैं दो श्रेणी है - एक क्षपकश्रेणि और एक उपशमश्रेणि । प्रथम क्षपक श्रेणिकी अपेक्षा कहते हैंजिसके परभवकी आयुका बन्ध नहीं होता वही जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहण करता है। अतः उसके नरक, तिर्यंच, देव तीन आयुका सत्व नहीं होता । तथा असंयतादि गुणस्थान में २५ सात प्रकृतियोंका क्षय करके वह क्षायिक सम्यग्दृष्टी होता है । इस तरह दस प्रकृतियों का सत्त्व न होनेसे अपूर्वकरणमें एक सौ अड़तीस सत्त्व होता है ।। ३३५ - ३३६॥
आगे अनिवृत्तिकरण आदि में क्षययोग्य प्रकृतियोंको कहते हैं
Jain Education International
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें क्रमसे सोलह, आठ, एक, एक, छह, और चार स्थानों में एक-एक प्रकृत्तिकी सत्त्व व्युच्छित्ति होती है। उससे ऊपर सूक्ष्म साम्पराय में एक, क्षीण ३० कषाय में सोलह, सयोगीमें शून्य, अयोगी में द्विचरम समय में बहत्तर और अन्त समय में तेरह की सत्त्व व्युच्छित्ति होती है ||३३७॥
१. म प्रतौ नास्तीयं गाथा । २, म ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org