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________________ १५ २० ६२ गो० कर्मकाण्डे सकलांगा सविस्तर संक्षेपविषयशास्त्रं स्तवं । एकांगार्थं सविस्तर ससंक्षेपविषयशास्त्रं एकांगाधिकारार्थसविस्तरस संक्षेपविषयशास्त्रं वस्त्वनुयोगादि धम्मंकथेयुमक्कुं पर्याडडिदिअणुभागप्पदे सबंधोत्तिचविहो बंधो। उपकरमणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णग त्ति पुधं ॥ ८९ ॥ प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशबंध इति चतुविधो बंधः । उत्कृष्टानुत्कृष्टो' जघन्योऽजघन्य इति पृथक् ॥ प्रकृतिबंध में स्थितिबंध मेंदुमनुभागबंधमेदं प्रदेशबंधमुमेंदु बंध चतुर्विधभक्कुमल्लि पृथक् १० प्रत्येककुत्कृष्टभुमें जघन्यमुमजघन्यमुमेंदु मितु चतुविधमक्कु ॥ अनंतरं उत्कृष्टशदिगळु प्रत्येकं चतुव्विधंगळेंदु पेदपरु :-- सादिअणादी धुबअद्भुवो य बंधो दु जेट्ठमादीसु । जागं जीवं पडि ओघादे से जहाजोग्गं ॥ ९० ॥ ३० स्तुतिः | नियर्मादिदं ॥ अनंतरं बंधं लुकु पेदपरु : सादिरनादिवोश्च बंबस्तुकुटादिषु । तानैकं जीवं प्रति ओघादेशे यथायोग्यं ॥ सादिबंध मेंदुमनादिबंध में दुं ध्रुवबंध में सबंधसुमेदितु । तु मत्ते उत्कृष्टादिबंधंगळोळु नानाजीवमुमेकजीवभुमं कुरु तु गुणस्थानयोळं मार्गणास्थानदोळं यथायोग्य मागि साद्यनादि सकलाङ्गार्थसविस्तरससंक्षेपविपयशास्त्रं स्तवः । एकाङ्गार्थतविस्तर ससंक्षेपविपयशास्त्र स्तुतिः । एकाङ्गाधिकारार्थसविस्तरस संक्षेपविषयशास्त्रं वस्त्वनुयोगादिधर्मकथा च भवति नियमेन ॥८८॥ बन्धभेदानाह अथ प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्धः अनुभागबन्धः प्रदेशबन्धश्चेति बन्धश्चतुर्विधः । स चतुर्विधोऽपि पृथक् प्रत्येक उत्कृष्टोऽनुत्कृष्टो जघन्योऽजघन्यश्चेति चतुविधः ॥ ८९ ॥ तानुत्कृष्टादीनपि भिनति तेषु उत्कृष्टादिवन्धेषु तु पुनः सादिवन्धोऽनादिवन्धो ध्रुवबन्धोऽध्र ुवबन्धश्च नानाजीवमेकजीवं च समस्त अंगसहित अर्थका विस्तार या संक्षेपसे जिसमें वर्णन होता है उस शास्त्रको स्तव कहते हैं। एक अंगसहित अर्थका जिसमें विस्तार या संक्षेपसे कथन होता है उस २५ शास्त्रको स्तुति कहते हैं। एक अंगके अधिकार सहित अर्थका संक्षेप या विस्तार से वर्णन करनेवाला शास्त्र जिसमें प्रथमानुयोगसम्बन्धी वस्तु रहती है वह नियमसे धर्मकथा है । सो इसमें बन्ध उदय सत्त्वरूप अर्थका कथन समस्त अंग सहित यथायोग्य विस्तार और संक्षेपसे कहा जायेगा अतः यह शास्त्र स्तव नामसे कहा गया है ||८८|| बन्धके भेद कहते हैं बन्धके चार भेद हैं- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । उन चारोंके भी जुदे-जुदे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य चार भेद हैं ॥ ८९ ॥ उन उत्कृष्ट आदिके भी भेद कहते हैं उन उत्कृष्ट आदि बन्धों में पुनः सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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