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गो० जीवकाण्ड ईश्वरवादियों की ओरसे नहीं मिलता। किन्तु कर्ममें ही फलदानकी शक्ति माननेवाला जैनकर्म-सिद्धान्त उक्त प्रश्नोंका बुद्धिगम्य समाधान करता है जैसा आगे बतलाया जायेगा।
९. कर्मके भेद
कर्मके दो भेद है-द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्मके मूल भेद आठ हैं और उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस तथा उत्तरोत्तर भेद असंख्यात हैं। ये सब पुदगलके परिणामरूप हैं क्योंकि जीवकी परतन्त्रतामें निमित्त होते हैं। और भावकर्म चैतन्यके परिणामरूप क्रोधादि भाव हैं उनका तो प्रत्येक जीवको अनुभव होता है: क्योंकि जीवके साथ उनका कथंचित् अभेद है । इसीसे वे पारतन्य स्वरूप हैं. परतन्त्रतामें निमित्त नहीं है। द्रव्यकर्म परतन्त्रतामै निमित्त होता है और भावकर्म चैतन्यका परिणाम होनेसे पारतन्ध्यस्वरूप होता है। यही दोनों में भेद है। जहां कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्थोंमें द्रव्यकर्मकी प्रधानतासे कथन मिलता है वहां अध्यात्ममें भावकर्मको प्रधानतासे वर्णन मिलता है। सब कर्मों में प्रधान मोहनीय कर्म है। वही संसारपरिभ्रमणका मुख्य कारण है। प्रवचनसार गा. ८३-८४ में कहा है कि द्रव्य-गुण पर्यायके विषयमें जीवका जो मढ़ भाव है, जिसका लक्षण तत्त्वको न जानना है, वह मोह है। उससे आच्छादित आत्मा परद्रव्यको आत्मद्रव्य रूपसे, परगुणको आत्मगुण रूपसे और परपर्यायको आत्मपर्याय रूपसे जानता है । अतः · रात-दिन पर-द्रव्य के ग्रहणमें लगा रहता है। तथा इन्द्रियोंके वश होकर जो पदार्थ रुचता है उससे राग करता है. जो नहीं रुचता उससे द्वेष करता है। इस प्रकार मोह-राग द्वेषके भेदसे मोहके तीन प्रकार अध्यात्ममें कहे हैं । ये सब भावमोह है। यह भावमोह कार्य भी है और कारण भी । पूर्वमें बद्धकर्मके उदयसे होता है इसलिए तो कार्य है और नवीन बन्धका कारण होनेसे कारण है। भावमोहको दूर किये बिना द्रव्यमोहसे छुटकारा नहीं हो सकता। क्योंकि भावमोहका निमित्त मिलने पर ही पौद्गलिक कर्म मोहादि द्रव्यकर्म रूप परिणत होते हैं। उनके उदयमें ज्ञानी विवेकी जीव मोहरूप परिणत नहीं होता अतः द्रव्यमोहका नवोन बन्ध नहीं होता। अतः यथार्थमें भावकमकी प्रधानता है, द्रश्यकर्मको नहीं। किन्तु कर्म-सिद्धान्त द्रव्यकर्म प्रधान है। इसीसे कर्मकाण्डके प्रारम्भमें कर्मके दो भेद करके लिखा है
'पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ अर्थात पुदगलके पिण्डको द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं। उक्त गाथाकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टोकामें लिखा है
"पिण्डगतशक्तिः कार्ये कारणोपचारात् शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति ।' 'उस पुद्गलपिण्डमें रहनेवाली फल देने की शक्ति भाव कर्म है । अथवा कार्यमें कारणके उपचारसे उस शक्तिसे उत्पन्न अज्ञानादि भी भाव कर्म है।' इस प्रकार कर्म-सिद्धान्तमें पौदगलिक कर्मोकी मुख्यतासे वर्णन मिलता है। यद्यपि भावकर्म द्रव्यकर्ममें निमित्त होता है और द्रव्यकर्म भावकर्ममें निमित्त होता है। दोनों ही अनादि होनेसे आगे-पीछेका प्रश्न नहीं है। फिर भी गौणता और मुख्यताको दृष्टिका भेद है। द्रव्यकर्मकी मुख्यतामें कहा जाता है कि द्रव्यकर्मका निमित्त न मिले तो भाव कम नहीं हो सकते। और भावकर्मकी मुख्यतामें कहा जाता है कि भावकर्मका निमित्त न मिले तो पुद्गल पिण्ड द्रव्यकर्म रूप नहीं हो सकता। दोनों ही कथन दृष्टिभेदसे यथार्थ हैं। किन्तु सुमुक्षुके लिए प्रथम कथनसे द्वितीय कथन अधिक उपयोगी है । प्रथम कथनसे तो यही ध्वनित होता है कि पुद्गल कर्मोंने ही चेतनको बाँध रखा है । और उनपर हमारा कोई जोर नहीं है। अतः परसे बांधा जानकर जीव निराश हो जाता है। किन्तु जब वह जानता है कि मेरे भावकर्म ही मेरे बन्धनके मूल हैं उनका निमित्त पाकर पौद्गलिक पिण्ड द्रव्यकर्म रूप होते है, तब वह अपने भावोंको सम्हालनेकी चेष्टा करता है। द्रव्य मोहके उदयमें भी भेदज्ञानके द्वारा मोहित नहीं होता। और इस तरह सम्यक्त्व को प्राप्त करके कर्मों के बन्धनसे सदाके लिए छूट जाता है।
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