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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका डेनितु स्थितिविकल्पंगळं नडदु बादरापर्याप्त जघन्यस्थितिबंधविकल्पमुमन्ते । बादरैकेंद्रियपर्याप्तसमयन्यूनसूक्ष्मपर्याप्तकजघन्यस्थित्यायाममात्रः-सा अपवर्तितः स चेदृश एव भवति सा । प - प ३४३ ३४३ तथा एकेन्द्रियस्य मिथ्यात्वाबाधा आवल्यसंख्येयभागाधिकसंख्यातावलिमात्री २ जघन्या च तदाधिक्योनत न्मात्री २३ तथानीतसमयोत्तराबावाविकल्पा एतावन्तः २ एतानेव उक्तसप्तत्रैराशिकानां स्थितिबन्धविकल्पान् a अपहाय फलराशीन् कृत्वा तत्तल्लब्धं स्वस्वस्यितिविकल्पानामधः संस्थाप्य तदष्टविकल्पाबाधायामानां प्रथमे रूपोनतल्लब्धमात्रान् परेषु संपूर्णतत्तल्लब्धमात्रानेव समयानपनीयापनीय परम्परमाबाधायामं साधयेत् । तत्संदृष्टि : इन भेदप्रमाण समयोंको सूक्ष्म पर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धमें-से घटानेपर बादर पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार एकेन्द्रियके सूक्ष्म बादरके पर्याप्त-अपर्याप्त जीव समासोंके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके भेदसे आठ स्थानों में स्थितिबन्धका प्रमाण १० कहा। इन आठोंमें सात अन्तराल होनेसे अन्तरालोंमें स्थितिके भेदोंका प्रमाण जाननेके लिए सात त्रैराशिक किये हैं। आगे आबाधाकालका प्रमाण दिखाते हैं एकेन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा आवलीके असंख्यातव भागसे अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है। और जघन्य आबाधा आधिक्यके बिना केवल १५ अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उत्कृष्टमेंसे जघन्यको घटाकर एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण हो उसमें एक जोड़नेपर एकेन्द्रिय जीवके मिथ्यात्वकी आबाधाके सब भेदोंका प्रमाण आता है। जैसे स्थितिबन्धके कथनमें आठ स्थानोंके सात अन्तरालोंमें भेदोंका प्रमाण लानेके लिए सात त्रैराशिक किये वैसे ही आबाधाका प्रमाण लानेके लिए भी करना चाहिए । यहाँ प्रमाणराशि तो सर्वत्र तीन सौ तेतालीस शलाका प्रमाण है। फलराशिमें वहाँ स्थितिके भेदोंका प्रमाण २० कहा था यहाँ एकेन्द्रिय जीवकी मिथ्यात्वको आबाधाके जघन्यसे लेकर उत्कृष्टपर्यन्त भेदोंका जितना प्रमाण उतना लेना । तथा इच्छाराशि क्रमसे वही एक सौ छियानबे, अठाईस, चार, एक, दो, चौदह और अठानबे शलाका प्रमाण लेना। सर्वत्र फलसे इच्छाको गणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे सो अपने-अपने अन्तरालोंमें आबाधाके भेदोंका प्रमाण है । सो प्रथम त्रैराशिकमें जितने भेदोंका प्रमाण आया उनमें से एक घटानेपर २५ जितना रहे उतना समय बादर पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी उत्कृष्ट आबाधामें से घटानेपर सूक्ष्म पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण होता है। उसमें-से दूसरे त्रैराशिकमें जितने भेदोंका प्रमाण आवे उतने समय घटानेपर बादर अपर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी आबाधाका प्रमाण होता है। इसी प्रकार तीसरे आदि त्रैराशिकमें भी जितने भेदोंका प्रमाण आवे उतने समय घटानेपर उस-उस स्थानमें जो स्थितिबन्धका ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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