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________________ ३६२ गो० कर्मकाण्डे योग सर्वोत्कृष्स्थानपर्यंतं निरंतरवृद्धिस्थानंगळु नडदु सर्वोत्कृष्ट परिणामयोगस्थानमिदु । छे आदीयंते सुद्धे वेड्ढिहिदे रूवसंजुदे ठाणा येदु सर्वनिरंतरपरिणामयोगस्थानविकल्पंगाळतिप्पुवु व वि १६ : ४ । ३ छ । उ ई योगस्थानंगळो स्वामिगळु द्वौद्रियादित्रसपर्याप्तजीवर शिद्रव्य. सर्व । ३१ व वि १६ । ४ । । १ में बुदक्कुं। स्थितिये बुदु ई निरंतरपरिणामयोगस्थानविकल्पंगळक्कुं। गुणहानियें बुदु सामान्य. च्छेदासंख्यातकभागप्रमितनानागुणहानिभक्तस्थित्येकभागमक्कुं। यित द्रव्यत्रयमुं अधस्तनोपरितनदळवाराः अधस्तनोपरितननानागुणहानिशलाकेगळं दुगुणं दोगुणहानियं उभयमन्योन्यं अधस्तनो. परितनान्योन्याभ्यस्तराशिद्वयमुमी यवाकारजीवसंख्यारचनेयोळु मुन्नमंकसंदृष्टियिदं मनंबुगिसल्वेडि यथासंख्यमागि द्रव्यप्रमाणं चतुर्दशशतद्वाविंशतिर्भवति साविरद नानूरिप्पत्तरडु कल्पि. सल्पटुदु । स्थितिप्रमाणं द्वात्रिंशत् चत्वारि गुणहान्यायाम नाल्कुं रूपुगळक्कुमधस्तनोपरितननाना. गुणहानिशलाकेंगळु क्रमदिदं त्रीणि पंच मूरुरूपंगळुमय्दु रूपंगळप्पुवु। दोगुणहानिप्रमाणं अष्ट येटु रूपुगळक्कुं। अधस्तनोपरितनान्योन्याभ्यस्तराशिगळु क्रमदिदमेंटुं मूवत्तेरडुमप्पुवु। यितुक्त यवाकारजीवसंख्यारचनायां तावदं कसंदृष्टया प्रतात्युत्पादनार्थ द्रव्यं चतुर्दशशतद्वाविंशतिः १४२२, स्थितिः द्वात्रिंशत् ३२, गुणहान्यायामश्वत्वारः ४ । अधस्तनोपरितननानागुणहानिशलाकाः क्रमेण तिस्रः पंच । सो द्रव्य पर्याप्त त्रसजीवोंका प्रमाण चौदह सौ बाईस १४२२ है । और स्थिति अर्थात् १५ पर्याप्त त्रस जीव सम्बन्धी परिणाम योगस्थानोंका प्रमाण बत्तीस ३२ है। गुणहानि आयाम अर्थात् एक गुणहानि स्थानोंका प्रमाण चार ४ है। ऐसी सब गुणहानियाँ आठ ८ हैं। इनको नाना गुणहानि कहते हैं। उनमें से नीचेकी गुणहानिका प्रमाण तीन ३ और ऊपरकी गुणहानिका प्रमाण पाँच ५, इस प्रकार आठ नाना गुणहानियाँ हैं। ___नाना गणहानि प्रमाण दोके अंक रख उन्हें परस्पर में गुणा करने पर अन्योन्याभ्यस्त२० राशिका प्रमाण होता है। सो नीचे की अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण आठ और ऊपरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण बत्तीस ३२, इस प्रकार सब चालीस हैं। द्रव्य के प्रमाणमें कुछ कम तिगुनी गुणहानिका भाग देनेपर यवाकारके मध्यमें जीवोंकी संख्या होती है। सो गणहानि आयामका प्रमाण चार ४ है । उसको तिगुना करनेपर बारह हुए। कुछ कम कहनेसे इसमें से एकके चौंसठ भागोंमें-से सत्तावन भाग घटानेपर समच्छे। विधानके अनुसार २५ १. म वड्ढि ७२ ६।४।२ हिदे । २. म रूपगलुमयिदुरूपुग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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