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________________ ८९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गळप्परिवं नडसल्पडुवुदु। ई सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्य योनिमतिमनुष्यरेंदी त्रिविधमनुष्यरुगळगे नित्यपर्याप्तकालदोळ बंधयोग्यप्रकृति ११२ अप्पुवेंते दोडे मिश्रकाययोगिगळप्पुरिदमायु चतुष्क, ४ नरकद्विकमुं २ आहारकद्विकमु २ मिन्तु ८ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळप्पुरिंदमवं बंधप्रकृतिगळु १२० रोळु कळेवोडे ११२ प्रकृतिगळप्पुवप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टिसासादना संयतप्रमत्तसयोगकेवलिगुणस्थानपंचकमक्कुमागुणस्थानंगळगे संदृष्टि : स १ १ प्र ६१ । १११ सा २९ / ९४ मि| १३ १०७ ५ । ई निवृत्यपर्याप्तमनुष्यमिथ्यादृष्टियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु १३ अप्पुढे ते दोर्ड मिश्रकाययोगिगळ्गे बंधयोग्यमल्लद नरकायुष्यमुं नरकद्विक, कळेदोडप्पुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु १०७ अप्पुवेक दोडे सुरचतुष्कर्मु तीत्थंमुमातनोळ्बंधयोग्यतेयिल्लप्पुरिदमनितेयप्पुवा पंच प्रकृतिगळुमबंधप्रकृतिगळप्पुवु५। ___सासादनंगे बंधव्युच्छित्तिगळु २९ अप्पुवेक दो. मनुष्यायुष्यमुं तियंगायुष्य, एरडुमल्लि १० कळेदुवप्पुरिवं। बंधप्रकृतिगळ ९४ अप्पुवु। अबंधप्रकृतिगळ १८ अप्पुवु । मिश्रगुणस्थानं शून्यमेयककुमेकेदोडे मिश्रगायुबंधमुं मरणमुमिल्लप्पुरिदं । ___ असंयतगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिगळ ८ अप्पुवे तेंदोडे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टक, तन्नोळे व्युच्छित्तियप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु ७० । अप्पुर्वतेंदोडे सुरचतुष्कर्मु ४ तीर्थमुमं निवृत्यपर्याप्तासंयतं कटुगुमप्पुरिदमवं कूडिदोडक्कुमप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळु ४२ अप्पुवेकेदोडे- १५ सर्वत्र गुणस्थानसामान्यवत् व्युच्छित्तिबन्धाबन्धप्रकृतयो भवन्तीति नेतन्यम् । तत्त्रिविधमनुष्यनिवृत्त्य पर्याप्तकानां बन्धयोग्यं द्वादशोत्तरशतमेव मिश्रकाययोगित्वादायुश्चतुष्क नरकद्विक बाहारद्विकं चेत्यष्टानां बन्धाभावात् । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतप्रमत्तसयोगाख्यानि पञ्च । तत्र मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिः १३ । नरकायुनंरकद्विकापनयनात् । बन्धः १०७ सुरचतुष्कतीर्थयोरबन्धात् । अबन्धः ५ । सासादने व्युच्छित्तिः २९ । नरतिर्यगायुषोरपनयनात् । बन्धः ९४ । अबन्धः १८ । मिश्रगुणस्थानं न संभवति । असंयते २० व्युच्छित्तिः ८ अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टकस्य अत्रैव छेदात् । बन्धः ७० । सुरचतुष्कतीर्थयोरस्य चाहिए। तीनों प्रकारके मनुष्य निर्वृत्यपर्याप्तकोंमें बन्ध योग्य एक सौ बारह हैं क्योंकि मिश्रकाययोग होनेसे चारों आयु, नरकद्विक और आहारकद्विक इन आठोंका बन्ध नहीं होता। गुणस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, प्रमत्त और सयोगकेवली पाँच होते हैं। उनमें-से मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति तेरह, क्योंकि नरकायु और नरकद्विकका अभाव है। बन्ध २५ एक सौ सात, क्योंकि सुरचतुष्क और तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। अतः अबन्ध पाँच । सासादनमें व्युच्छित्ति उनतीस क्योंकि मनुष्यायु तिर्यश्चायु कम हो गयी है । बन्ध चौरानबे, अबन्ध अठारह । यहाँ मिश्रगुणस्थान नहीं होता। असंयतमें व्युच्छित्ति आठ; क्योंकि अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान आठ कषायोंकी व्युच्छित्ति यहीं हो जाती है। बन्ध सत्तर; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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