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गो० कर्मकाण्डे बंधव्युच्छित्तिगळ ३१ अप्पुर्व ते दडे असंयतंगे पेन्द बंधव्युच्छित्तिगळु १० रोल तिरियेव णरे एंदु पेळ्दरप्पुरिंदमप्रत्याख्यानचतुष्टयमं कळदुळिद षट्प्रकृतिगळु सासादननोळु व्युच्छित्तिगळादुवप्पुदरिदं बंधप्रकृतिगळ १०१ । अबंधप्रकृतिगळु १९। मिश्रगुणस्थानदोळु बंधव्युच्छित्तिशून्यमक्कुं। बंधप्रकृतिगळु ६९ । अप्पुवेक दोडे देवायुष्यमं कळेदु अबंधप्रकृतिगळोळकूडिदवप्पुरिदं। अबंध. प्रकृतिगळु ५१ । असंयतगुणस्थानदोळ, बंधप्रकृतिगळु ४ अप्पुवेके दोडे वज्रऋषभनाराचसंहननादि षट्प्रकृतिगळ, सासादननोळु बंधव्युच्छितिगळादुवप्पुरिदं बंधप्रकृतिगळु ७१ अप्पुर्व ते दोर्ड मिश्रनोळबंधरूपदिनिई देवायुष्यमुमं तीर्थमुमनातं कटुवनप्पुरिंदमा एरडं प्रकृतिगळं कूडिदुवेबुदत्थं । अबंधप्रकृतिगळु ४९ । अप्पुवा कूडिदेरडं प्रकृतिगळु कळदुवप्पुरिदं। देशव्रतियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु तन्न प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्टयमेयककुं ४ । बंधप्रकृतिगळु ६७ अबंधप्रकृतिगळु ५३। प्रमत्तसंयतनोळु बंधव्युच्छित्तिगळु अस्थिरादिगळु ६ अप्पुवु। बंधप्रकृतिगळं ६३ अबंधप्रकृतिगळु ५७ । अप्रमत्तगुणस्थानदोळु देवायुष्यमोदे बंधव्युच्छित्तियक्कुं १। बंधप्रकृतिगळ ५९ एके दोडाहारकद्विक, प्रमादरहितरु कटुवरप्पुरिदमा एरडं प्रकृतिगळु कूडिदोडक्कुम - बुदत्यं । अबंधप्रकृतिगळु ६१ । अप्पुवा कूडिदरडं प्रकृतिगळ कळेदुवप्पुरिदं मेलपूर्वकरणादिगुणस्थानंगळल्लडयोळं मुन्नं गुणस्थानसामान्यकथनदोळेतु पेन्दत बंधव्युच्छित्ति बंधाऽबंधप्रकृति
बन्धव्युच्छित्तिः ३१ । तिरिएव गरे इत्यसंयतस्योक्तबन्धव्युच्छित्तौ उपरितनषण्णामत्रैव छेदाद् बन्धः १०१। अबन्धः १९ । मिश्रे बन्धव्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ६९ । देवायुष्यमपनीय अबन्धप्रकृतिषु क्षेपात् । बन्धः १०१ । अबन्धः ५१ । असंयते बन्धव्युच्छित्तिः ४ । वज्रवृषभनाराचादिषट्प्रकृतीनां सासादने व्युच्छिन्नत्वात् । बन्धः ७१ । देवायुस्तीर्थकरयोरत्र बन्धे मिलितत्वात् । अबन्धः ४९ । तत्प्रक्षिप्तप्रकृतिद्वयस्यापनयनात् ।
देशव्रते बन्धपुच्छित्तिः स्वस्य प्रत्याख्यानकषायचतुष्कमेव ४। बन्धः ६७ । अबन्धः ५३ । प्रमत्तसंयते २० बन्धव्युच्छित्तिः अस्थिरादयः ६ । बन्धः ६३ अबन्धः ५७ । अप्रमत्तगुणस्थाने देवायुयुच्छित्तिः १ । बन्धः
५९ । आहारद्वयस्य प्रमादरहितेषु बन्धप्रतिपादनात् । अबन्धः ६१ । तवयस्यापनयनात् । उपर्यपूर्वकरणादिषु
अनुसार अबन्धमें जोड़नेपर ऊपरके बन्ध और अबन्ध होते हैं। मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति १६, बन्ध ११७, अबन्ध तीर्थकर और आहारद्विक इस प्रकार तीन । सासादनमें बन्ध व्युच्छित्ति ३१, क्योंकि तियश्चके समान मनुष्यमें होनेसे असंयतमें कही बन्धव्युच्छित्ति दसमें-से ऊपरकी छहकी व्युच्छित्ति यहाँ ही होती है। बन्ध १०१, अबन्ध १९ । मिश्रमें बन्धव्युच्छित्ति शून्य, बन्ध ६९, क्योंकि देवायुको अबन्ध प्रकृतियोंमें मिला दिया है, बन्ध एक सौ एक, अबन्ध इक्यावन । असंयतमें बन्धव्युच्छित्ति चार, क्योंकि वज्रर्षभनाराच आदि छह प्रकृतियोंकी सासादनमें व्युच्छित्ति हो गयी है। बन्ध इकहत्तर, क्योंकि देवायु और तीर्थकर यहाँ बन्धमें आ गयी हैं । अबन्ध उनचास; क्योंकि बन्ध में गयी दो प्रकृतियाँ कम हो गयी हैं। देशसंयतमें बन्धव्युच्छित्ति अपनी प्रत्याख्यान कषाय चार हैं। बन्ध सड़सठ, अबन्ध तरेपन । प्रमत्तसंयतमें बन्धव्युच्छित्ति अस्थिर आदि छह, बन्ध तरेसठ, अबन्ध सत्तावन । अप्रमत्त गुणस्थानमें एक देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति, बन्ध उनसठ, क्योंकि आहारकद्विकका बन्ध प्रमादरहित में कहा है । अबन्ध इकसठ क्योंकि दो कम गयीं। ऊपर अपूर्वकरण आदिमें सर्वत्र गुणस्थान सामान्यकी तरह व्युच्छित्ति बन्ध और अबन्ध प्रकृतियाँ होती हैं उसी प्रकार लगाना
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