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________________ २२ गो० कर्मकाण्डे नामकर्ममेदितु नामकर्मदुत्तरप्रकृतिगळु तो भत्तपूरुं नूर मूरु मेणबु ॥ मुलुण्हपहा अग्गी आदावो होदि उग्रहसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोओ ।।३३॥ मूलोष्णप्रभोऽम्मिः आतपो भवत्युष्णसहितप्रभः । आदित्ये तिरश्चि उगोलप्रभः खलूद्योतः॥ सूलदोलुष्णप्रभेयनुळ्ळ्दग्नियक्कुं। उष्णसहितप्रभेयनुळ्ळु दातपमक्कुनलुनाश्मिदिनदोळ्पुट्टिद बादरपर्याप्तपृथ्वोकायतिय्यंचरोळेयक्कुं। उष्णरहितप्रभयनुयुदुद्योतमय स्फुटमागि॥ गोत्रकम द्विविधमक्कं उच्चनीचगोत्रकम्मम दितु । अंतरायकम्मं पंचविधमकं । दान लाभ भोगोपभोगवीतिरायकम्र्म में दितु आत्मप्रदेशस्थितकर्मभावयोग्यंगळप्प कार्मणवर्गणगळे अदिभादिदमुपश्लेषं बंध'दुपेळल्पटुतु। भाजनविशेषदोन्प्रक्षिप्त विविधरसबीजपुष्पफलंगळग मदिराभावदिदं परिणाम, तक्कुमंते कार्मणपुद्गलंगळगेयुं योगकषायनिमितदिदं कर्मभावदिद परिणाममरियल्पडुगुं। ओंदे आत्मपरिणामदिदं कैकोळुत्तिई पुद्गलंगछु ज्ञानावरणाद्यनेकभेदंगळरियल्पडुवुवेतोगळु सकृदुपयुक्तान्नमा दक्केये रसरुधिरादिपरिणाममेंतंते । यिन्नुत्तरप्रकृतिगळगे निरुक्ति पेळल्पडुगुमदें तेंदोडे : १५ स्व्युत्तरशतं वा भवन्ति ।।३२।। मूले उष्णप्रभः अग्निः, उष्णसहितप्रभः आतपः स च आदित्यबिम्बोत्पन्नबादरपर्याप्तपृथ्वीकायतिरश्चि भवति । उष्णरहितप्रभः उद्योतः स्फुटम् । गोत्रकर्म द्विविधं उच्चनीचगोत्रभेदात् । अन्तरायकर्म पञ्चविधदानलाभ भोगोपभोगवीर्यान्तरायभेदात् । आत्मप्रदेशस्थितानां कर्म भावयोग्यानां कामणवर्गणानां अविभागेन उपश्लेषः बन्धः। यथा भाजनविशेषप्रक्षिप्तविविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावः स्यात् तथा कार्मणपद्गलानां योगकषायनिमित्तेन कर्मभावो ज्ञातव्यः । एकेनैव आत्मपरिणामेन स्वीक्रियमाणपुद्गलाः ज्ञानावरणाद्य नेकभेदाः स्युः सकृदुपयुक्तस्यान्नस्य एकस्यैव रसरुधिरादिपरिणामवत् । इदानीमुत्तरप्रकृतीनां निरुक्तिरुच्यते २० प्रकृतियाँ तिरानबे अथवा एक सौ तीन होती हैं ।।३२।। जो मूलमें उष्ण हो वह अग्नि है और जिसकी प्रभा उष्ण हो वह आतप है। आतप २५ नाम कर्मका उदय सूर्यके बिम्बमें उत्पन्न बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक तियचजीवमें होता है। जिसकी प्रभा भी उष्ण न हो वह उद्योत है। गोत्रकर्म दो प्रकार है-उच्चगोत्र, नीचगोत्र । अन्तरायकर्म पांच प्रकार है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । आत्माके प्रदेशों में स्थित कर्मरूप होनेके योग्य कामणवर्गणाओंका भेदरहि सम्बन्ध बन्ध है। जैसे विशेष पात्र में डाले गये विविध रस, बीज, पुष्प, फलोंका मदिरारूप ३० परिणाम होता है उसी तरह योग और कषायके निमित्तसे कार्मणपुद्गलोंका कर्मरूप परिणाम जानना। एक ही आत्मपरिणामसे ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेदरूप हो जाते हैं जैसे एक बार में खाये गये एक ही अन्नका रस रुधिर आदि रूपसे परिणाम होता है । अब उतरप्रकृतियोंकी निरुक्ति कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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