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________________ ५ ४०६ गो० कर्मकाण्डे 1 बंद लब्धं सम्यंप्रकृतिविकल्पस्थितिबंधाध्यवसायप्रमाणमक्कु = = ० २ = ० गु गु३ प २ a गु मदु कारणमागि सर्व्वप्रकृतिस्थितिविकल्पंगळं नोडलु स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळमसंख्यात लोकगुणर्म पेळपट्दो स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळगनुवृष्टिविधानमुटप्पुदीयल्पबहुत्वकथनदोळ प्रस्तुत मल्लप्पुर्वारदं पेळल्पडदु मुंदे पेळल्पडुगु । अनंतरमनुभागबंधाध्यवसायंगळगं कम्मं प्रवेशंगळ्गमल्पबहुत्वमं मुंदण सूत्रदिवं पेदपरु । अणुभागाणं बंधझवसाणमसंखलोगगुणिदमदो । तो अनंतगुणिदा कम्मपदेसा मुणेदव्वा || २६०॥ अनुभागानां बंधाध्यवसायोऽसंख्यलोक गुणितोऽतः । इतोऽनन्तगुणिताः कम्मं प्रदेशा मन्तव्याः ॥ 1 १० स्युः ? इति त्रैराशिकेन एषां २ गुगु३प स्थितिविकल्पेभ्योऽसंख्यातलोकगुणि २ a Jain Education International g १ गु २ 1 .. तत्वदर्शनात् । तेषां स्थितिबंधाध्यवसायानामनुकृष्टिविधानमस्त्यपि अत्राप्रस्तुतत्वान्नोक्तम् । अग्रे वक्ष्यति ।। २५९ ।। सब स्थितिके भेदों में जघन्य स्थितिबन्धके कारण कषायाध्यवसाय स्थान सबसे थोड़े हैं । वे असंख्यात लोकमात्र हैं । 'पदहतमुखमादिधनं' अर्थात् आदिस्थानको गच्छसे गुणा करनेपर आदि धन होता है। एक अधिक गुणहानि आयामका भाग आदिमें देनेपर चयका प्रमाण १५ होता है । आदिधन और चयधनको मिलानेपर प्रथम गुणहानिका सर्व द्रव्य होता है। सो प्रत्येक गुणहानिमें दूना-दूना होते-होते अन्त में एक कम नानागुणहानि प्रमाण दूना होनेपर अन्योन्याभ्यस्त राशि के आधे प्रमाणसे आदिको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो वही अन्तकी गुणहानिका द्रव्य जानना । सो 'अंतधणं गुणगणियं आदिविहीणं रूउणुत्तर भजियं' इस सूत्र - के अनुसार अन्तमें जो प्रमाण हुआ उसको गुणाकार दोसे गुणा करके उसमें से आदिका २० प्रमाण घटावे | उत्तरके प्रमाण दो में एक घटानेपर एक रहा। उससे भाग देनेपर उतना ही रहा । इस तरह करनेपर जो प्रमाण रहा उसे सर्वगुणहानिका धन जानना । एक प्रकृतिके संख्यात ल्यप्रमाण स्थिति भेद और उनके इतने असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हुए तो सर्व उत्तरोत्तर प्रकृति संग्रहके भेदोंके कितने स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान हुए इस प्रकार त्रैराशिक करनेसे स्थितिके भेदोंसे असंख्यात लोक गने होते हैं । इन स्थितिबन्धाध्यवसाय, स्थानों में अधःप्रवृत्तकरण की तरह अनुकृष्टि विधान होता है सो आगे कहेंगे । यहाँ मुख्य कथन न होने से नहीं कहा || २५९ ॥ २५ इन सब स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानोंसे अनुभागाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक गुने होते हैं । वही कहते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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