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________________ गो० कर्मकाण्ड मैं अन्य जीवों को मारता हूं या अन्य जीव मुझे मारते हैं जिसके ऐसा अध्यवसाय है वह अज्ञानो होने से मिथ्यादृष्टि है । और जिसके नहीं है वह ज्ञानी होनेसे सम्यग्दृष्टी है ॥२४७॥ क्योंकि जीवोंका मरण अपने आयुकर्मके क्षय होनेसे ही होता है और आयुकर्मको कोई दूसरा हर नहीं सकता । वह तो अपने उपभोगसे ही क्षय होता है। अतः कोई कभी भी किसी अन्यका मरण नहीं कर सकता। अतः मैं अन्य जीवको मारता हूँ और अन्य जीव मुझे मारते हैं इस प्रकारका अध्यवसाय निश्चय ही अज्ञान है। इसी तरह मैं अन्य जीवोंको जिलाता है और अन्य जीव मुझे जिलाते है ऐसा अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है। क्योंकि जीवन तो जीवोंके अपने आयुकर्मके उदयसे ही होता है। उसके अभावमें नहीं होता । और आयुकर्म कोई किसी को दे नहीं सकता । वह तो अपने परिणामोंसे ही बंधता है। मैं अन्य जीवों को दुखी या सुखी करता हूँ और अन्य जोद मुझे दुखी या सुखी करते हैं ऐसा अध्यवसाय निश्चय ही अज्ञान है। क्योंकि सब जीव अपने-अपने कर्मके उदयसे दुखी और सुखो होते हैं । उसके अभादमें उनका सुखी-दुखी होना सम्भव नहीं है। और अपना कर्म कोई किसी को दे नहीं सकता, उसका उपार्जन तो अपने परिणामोंसे ही होता है। अतः कोई कभी भी किसोको दुखी-सुखो नहीं कर सकता। अतः अन्य जीवोंको मैं मारता हूँ, या नहीं मारता हूँ, उन्हें सुखी या दुखी करता हूँ इस प्रकारका जो अज्ञानमय अध्यवसाय है वही स्वयं रागादिरूप होनेसे उसके शुभ या अशुभ बन्धका कारण होता है। जोगों के प्राणोंका घात अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश कभी होता है और कभी नहीं होता। किन्तु जो मारनेका अध्यवसाय किया जाता है वह निश्चयसे बन्धका हेतु होता है। इसी प्रकार अहिंसाका अध्यवसाय करना पुण्यबन्धका हेतु है। सारांश यह है कि बन्धका कारण अध्यवसाय है, बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है वह तो केवल अध्यवसान का कारण है। अध्यवसानके निषेधके लिए हो बाह्य वस्तुका निषेध है। बाह्य वस्तुके आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता। इसलिये बाह्यवस्तु परम्परासे बन्धका कारण होती है साक्षात् नहीं, साक्षात् बन्धका कारण तो अध्यवसान ही है। अतः अन्य जीवोंको मैं सुखी करता हूँ या दु:खी करता हूँ इत्यादि अध्यवसान मिथ्या है क्योंकि परका भाव परमें व्यापार नहीं करनेसे स्वार्थ क्रियाकारी नहीं होता। स्व और परका भेदज्ञान न होने पर जो जीव संकल्प-विकल्प करता है उसे अध्यवसान कहते हैं । यही बन्धका कारण है। यह कषायके उदयरूप होता है। कषाय के उदयसे हो कर्मों में स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। कषायके उदयके अभावमें केवल योगसे तो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही होते है। अतः बन्धका प्रमुख कारण कषायोदयरूप अध्यवसान ही होता है। किन्तु आगममें बन्धके कारण चार या पाँच कहे हैं। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग ये पांच हैं और प्रमादके बिना चार है। तत्त्वार्थसूत्र अ. ८.१ में पांच कारण कहे है । समयसार, गोम्मटसार आदिमें प्रमादको नहीं लिया है इसपरसे यह आशंका होना स्वाभाविक है कि जब बन्धके चार प्रकार हैं और उनके दो ही कारण कहे हैं तब मिथ्यात्व और अविरतिको बन्धका कारण क्यों कहा ? यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि बन्धके ये कारण क्रमसे ही दूर होते हैं, प्रथम गुणस्यान मिथ्यादृष्टि में बन्धके पांचों कारण रहते हैं। दूसरेसे चतुर्थतक मिथ्यात्व नहीं रहता। शेष चार रहते हैं। पांचवेंमें एक देश अविरतिके साथ बन्धके तीन कारण रहते हैं। छठेमें प्रमाद कषाय योग रहते हैं। सातवेंसे दसवें तक कषाय योग दो ही कारण रहते हैं। आगे तेरहवें तक केवल एक योग रहता है। अतः दसवें गुणस्थान तक चारों बन्ध होते हैं, आगे केवल प्रकृतिबन्ध प्रदेशबन्ध हो होते हैं । इस तरह इन चारों बन्धोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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