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________________ प्रस्तावना इसलिए व्यवहारनयको परमार्थका प्रतिपादक होनेसे स्थापित करना तो योग्य है किन्तु उसको सर्वथा उपादेय मानकर उसका अनुसरण करना योग्य नहीं है । इसीसे समयसार गा. ७ में कहा है 'ज्ञानीके चारित्र, दर्शन, ज्ञान व्यवहारसे कहे हैं। निश्चयसे न ज्ञान है, न चारित्र है, न दर्शन है वह तो ज्ञायक मात्र है।' तथा गाथा १६ में कहा है 'साधुको दर्शन, ज्ञान, चारित्रका निरन्तर सेवन करना योग्य है। किन्तु निश्चयसे उन तीनोंको आत्मा ही जानो।' अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्माके ही पर्याय हैं, कोई भिन्न वस्तु नहीं हैं, अतः साधुको एक आत्माकी ही आराधना करनी चाहिए। स तरह व्यवहार भी किन्हीं जीवों के लिए किन्हीं अवस्थाओं में उपयोगी होता है। इसीसे आगममें जो कथन किया गया है वह व्यवहार प्रधान है क्योंकि उसके बिना परमार्थका बोध नहीं होता। अतः परमार्थका ज्ञान कराने के लिए आगममें भी व्यवहारप्रधान कथनका निषेध मिलता है। उदाहरणके लिए गोम्मटसारके जीवकाण्डमें बीस प्ररूपणाओंके द्वारा जीवका कथन किया है । अन्तमें कहा है गुणजीवठाणरहिया सण्णा पज्जत्तिपाणपरिहीणा। सेस णवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ।। सिद्ध सदा शुद्ध होते हैं उनमें गुणस्थान, जीवसमास, संज्ञा, पर्याप्त, प्राण तथा चौदह मार्गणाओं मेंसे नौ मार्गणा नहीं होतीं। अर्थात् बीसमें से केवल छह प्ररूपणाएँ शुद्ध जीवमें होती हैं। अतः चौदहका कथन व्यवहारमूलक है। उससे हो संसारी जीव जीवका यथार्थ स्वरूप समझने में समर्थ होते है। समयसारोक्त बन्धका कथन समयसारमें भी बन्धतत्त्वका कथन है । उसका भी सार यहाँ दिया जाता है जैसे कोई पुरुष शरीरमें तेल लगाकर धूलसे भरी भूमिमें खड़ा होकर व्यायाम कर्म करते हुए अनेक प्रकारके उपकरणोंसे सचित्त-अचित्त वस्तुका घात करते हुए धूलसे लिप्त हो जाता है। उसके धूलसे लिप्त होनेका कारण क्या है ? भूमिका स्वभावसे ही धूलिभरा होना तो कारण नहीं है। यदि ऐसा हो तो जिनके शरीरमें तेल नहीं लगा है उनके भी धूलिसे लिप्त होने का प्रसंग आता है। यही बात शस्त्रोंसे व्यायाम करनेके सम्बन्धमें भी जानना तथा अनेक उपकरणोंसे सचित्त-अचित्त वस्तुका घात करने के सम्बन्धमें भी जानना । अतः न्यायबलसे यही सिद्ध होता है कि उस पुरुषका तेलसे लिप्त होना ही धूलिसे लिप्त होने का कारण है। इसी प्रकार मिथ्यादष्टि आत्मामें रागादि करता हआ स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे लोकमें मन-वचन-कायको क्रिया करते हुए अनेक प्रकारके उपकरणों के द्वारा सचित्त-अचित्त वस्तुओंका घात करते हुए कर्मरूपी धूलि बांधता है। इसमें उसके बन्धका कारण क्या है ? लोकका स्वभावसे ही कर्मपुद्गलोंसे भरा होना यदि कारण हो तो लोकके अग्रभागमें विराजमान सिद्धोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। मन-वचन-कायकी क्रिया भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो यथाख्यात संयमके धारियोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। अनेक इन्द्रियोंका होना भी बन्धमें कारण नहीं है, यदि हो तो केवलज्ञानियोंके भो बन्धका प्रसंग आता है। सचित्त-अचित्त वस्तुका घात भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो समितियों के पालक मुनिराजोंके भी कर्मबन्धनका प्रसंग आता है। अतः न्यायबलसे यह निष्कर्ष निकलता है कि उपयोगमें रागादिका करना ही बन्धका कारण है ॥२३७-२४।। मागे रागको अज्ञानमय अध्यवसाय बतलाकर उसे ही बन्धका कारण कहा है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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