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________________ १२ गो० कर्मकाण्ड कहता है और निश्चयनय स्वाश्रित होता है। इसीसे पहला असत्य और दुसरा सत्य कहलाता है। जैसे जीवकी संसारदशा व्यवहारसे है निश्चयसे नहीं है । तब क्या जीवको संसारदशा झूठी है ? क्या वह संसारी नहीं है ? ऐसा प्रश्न होता है। इसका उत्तर है कि जीवको संसारदशा झूठी नहीं है सच्ची है किन्तु उस दशाको जीवका स्वरूप मानना असत्य है। व्यवहारनय उसे जीवका मानता है। यदि हम व्यवहारनयको सर्वथा सत्य मान बैठे तब तो मुक्ति की चर्चा ही व्यर्थ हो जायेगी। अतः जो केवल व्यवहारको हो यथार्थ मानकर उसी में रमे रहते है उन्हें तो सम्यक्त्वको प्राप्ति तीन कालमें नहीं हो सकती क्योंकि उसके लिए आत्माका ज्ञान आवश्यक है और आत्माके ज्ञानके लिए अनात्माका ज्ञान आवश्यक है । आत्मा और अनात्माका भेदज्ञान होनेपर ही सम्यक्त्व हो सकता है और यह ज्ञान निश्चय दृष्टिके बिना सम्भव नहीं है क्योंकि वही दृष्टि आत्माके शुद्ध स्वरूपका बोध कराती है। प्रवचनसार गा. १८३ में कहा है जो जीव और पुद्गलके स्वभावको निश्चित करके यह नहीं देखता कि जीव स्व है और पुद्गल पर है। वही मोहवश परद्रव्यको अपना मानता है और उसमें आसक्ति करता है। इस प्रकार भेदविज्ञान न होनेसे जीव परद्रव्यासक्त होता है और भेदज्ञान होनेसे परसे आसक्ति त्याग 'स्व' में प्रवृत्त होता है। आगे प्रवचनसार गा. १८९ की टीकामें निश्चय और व्यवहारका अविरोध दर्शाते हए अमृतचन्द्रजीने जो कहा है वह व्यवहार और निश्चय विषयक सब शंकाओं का निराकरण करता है । उन्होंने कहा है 'रागपरिणाम ही आत्माका कर्म है, वही पुण्य-पापरूप है। रागपरिणामका ही आत्मा कर्ता है, उसीका ग्रहण करनेवाला और उसोका त्याग करनेवाला है, यह शुद्ध द्रव्यका निरूपण करनेवाला निश्चयनय है, और पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म है वही पुण्य-पापरूप है, आत्मा पुद्गल परिणामका ही कर्ता है, उसीको ग्रहण करता और छोड़ता है, यह अशुद्ध द्रव्यका कथन करनेवाला व्यवहारनय है। ये दोनों भी नय हैं क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता दोनों प्रकारसे द्रव्यको प्रतीति होती है किन्तु यहां (अध्यात्मशास्त्रमें) निश्चयनय साधकतम होनेसे ग्रहण किया गया है। क्योंकि साध्य के शुद्ध होनेसे द्रव्यको शुद्धताका प्रकाशक होनेसे निश्चयलय साधकतम है किन्तु जीवके अशुद्ध स्वरूपका प्रकाशक व्यवहारनय साधकनय नहीं है। उक्त कथनमें व्यवहार और निश्चयका कपन तथा दोनोंकी उपयोगिता और अनुपयोगिता अथवा साधकतमता और असाधकतमताको स्पष्ट कर दिया है। चूंकि सापेक्षनय सत्य और निरपेक्षनय मिथ्या होते हैं। अतः जैसे निश्चय निरपेक्ष व्यवहार मिथ्या है उसी प्रकार व्यवहार निरपेक्ष निश्चय भी मिथ्या है। किन्तु हेय और उपादेयकी दृष्टि से व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित जीव का अशुद्ध स्वरूप हेय है और निश्चय प्रतिपादित शुद्ध स्वरूप उपादेय है। उसोको प्राप्तिके लिए सब प्रयत्न है। किन्तु व्यवहार हेय होते हुए भी प्रारम्भसे ही सर्वथा हेय नहीं है । व्यवहार नयके बिना परमार्थका उपदेश भी अशक्य है। जैसे 'आत्मा' कहनेपर जिन्हें आत्माका परिज्ञान नहीं है, व कुछ भी नहीं समझते । किन्तु जब व्यवहार नयका अवलम्बन लेकर कहा जाता है कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप है वह आत्मा है तो वह समझ जाते हैं। किन्तु ऐसा कहने पर भी अखण्ड-अभेदरूप आत्माकी प्रतीति न होकर खण्डभेदरूप आत्माकी प्रतीति होती है जो यथार्थ नहीं है क्योंकि आत्मा तो अखण्ड-अभेदरूप है। यदि कोई व्यवहारके द्वारा प्रतिपादित खण्ड-भेदरूप स्वरूपको ही यथार्थ मान बैठे तो वह मिथ्याज्ञानी ही कहा जायेगा। इस प्रकार जहाँ परमार्थका प्रतिपादक होनेसे व्यवहार उपयोगी है वहाँ यथार्थ स्वरूपका बोध न करा सकनेसे त्याज्य भी है। इसीलिए अमृतचन्द्र जीने कहा है ‘एवं....व्यवहारनयोऽपि परमार्थप्रतिपादकत्वात् उपन्यसनीय....व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः ।' (गा. रको टोका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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