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________________ प्रस्तावना कारण कषाय योग प्रारम्भसे ही रहते हैं फिर भी मिथ्यात्व अविरति और प्रमादको भी बन्धके कारणोंमें कहा है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मोनोय कर्मके दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीयका भेद मिथ्यात्व है और चारित्र मोहनीयका भेद कषाय है । उस कषायको चार जातियाँ हैं, उनमेंसे प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय है। इसका और मिथ्यात्वका ऐसा गठबन्धन है कि एकके बिना दूसरा नहीं जाता। जब दोनोंका ही उपशम आदि होता है तभी जीवको सम्यक्त्व होता है। किन्तु पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों की बन्धको व्युच्छित्ति होती है। ये सोलह प्रकृतियाँ केवल पहले गुणस्थान में ही बंधती हैं आगे मिथ्यात्वका उदय न होने से नहीं बंधती है । अतः उनके बन्धका मुख्य कारण मिथ्यात्व ही है । अतः मिथ्यात्वको बन्धका कारण कहा है। मिथ्यात्वके उदयके साथ अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंका उदय तो रहता ही है। फिर भी दूसरे गणस्थान में मिथ्यात्वका उदय न होनेसे अनन्तानुबन्धोका उदय होते हुए भी उक्त सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। अतः उनके बन्धका प्रमुख कारण मिथ्यात्व हो है । अतः कषाय और योगके साथ मिथ्यात्वको भी बन्धका कारण माना गया है। अविरति या असंयमके तीन प्रकार है-अनन्तानुबन्धी कषायके उदयरूप, अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयरूप और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयरूप । इस तरह उसे भी बन्धके कारणों में गिनाया है। जीव और कर्मके बन्धका स्वरूप जीव एक पृथक् स्वतन्त्र द्रव्य है और पोद्गलिक कर्म एक पृथक् स्वतन्त्र द्रव्य है । इसीसे शुद्ध जीवके साथ पोद्गलिक कर्मका बन्ध नहीं होता किन्तु कर्मसे बद्ध अशुद्ध जीवके साथ हो पौद्गलिक कर्मका बन्ध होता है । यह बन्ध संयोगपूर्वक हो होता है। संयोगके बिना तो हो नहीं सकता। किन्तु जीव और कर्मका बन्ध संयोगपूर्वक होनेपर भी केवल संयोगमात्र नहीं है। जैसे दो परमाणुओं का संयोग होनेपर भी यदि उनमें बन्ध न हो तो द्वघणुक आदि स्कन्ध नहीं बन सकते । इसो तरह जीवका कर्म के साथ बन्ध भी केवल संयोगमात्र नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में ( ५।३३ ) सूत्रको उत्थानिकामें यह शंका उठायो है कि द्वयणुक आदि लक्षण संवात संयोगसे ही हो जाता है या कुछ विशेषता होती है। समाधानमें कहा है कि संयोग के होनेपर एकत्व परिणमन रूप बन्धसे संघातको उत्पत्ति होती है। इसी सर्वार्थसिद्धि (२७) सूत्रकी टोकामें शंका की गयी है-यदि कर्मबन्ध रूप पर्यायकी अपेक्षा जोव मूर्त है तो कर्मबन्धके आवेशसे आत्माका ऐक्य हो जानेपर दोनों में भेद नहीं रहेगा। उत्तरमें कहा है, बन्धकी अपेक्षा एकत्व है, लक्षणभेदसे नानात्व है। इससे स्पष्ट है कि जोव और कर्मका बन्ध भी दो परमाणुओं के बन्धकी तरह ही होता है। पंचास्तिकाय गाथा ६७ को टोकामें अमृतचन्द्रजीने लिखा है __'जीवा हि मोहरागद्वेषस्निग्धत्वात् पुद्गलस्कन्धाश्च स्वभावस्निग्धत्वात् बन्धावस्थायां परमाणुद्वन्द्वानीवान्योन्यावगाहग्रहण प्रतिबद्धत्वेनावतिष्ठन्ते ।' 'जीव तो मोह, राग, द्वेषसे स्निग्ध है, और पुद्गलस्कन्ध स्वभावसे स्निग्ध है। अतः बन्धदशामें दो परमाणु प्रों की तरह परस्परमें अवगाहके ग्रहण द्वारा प्रतिबद्ध रूपसे रहते हैं।' सर्वार्थसिद्धि ( ५।३७ ) में कहा है-"ऐसा बन्ध होने से पूर्व अवस्थाओंको त्यागकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है । अतः उनमें एकरूपता आ जाती है। अन्यया सफेद और काले तन्तुके समान संयोग होनेपर भी पा िणामिक न होनेसे सब अलग-अलग ही स्थित रहेगा। परन्तु उक्त विधिसे बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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