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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतस्थप्रदीपिका ६३७ दर्शनमोहनीयत्रयक्षपणाप्रारंभकरुमप्पुरिदमा शप्रकृतिगळु क्षपकोणियिदकेळगे कसिल्पटुवप्पुरिदमपूर्वकरणनोळु नूरमूवत्तंटे प्रकृतिसत्वस्थानमक्कुमदं चतुःप्रतिकर्म माडि प्रथमस्थानदोळु तीर्थमाहारकचतुष्टयमुं सत्वमुंटें'दु शून्यमं कळेदु द्वितीयस्थानबोळु तीर्थमिल्लाहारक चतुष्टयसत्वमुंटे दो दं कळेदु तृतीयस्थानदोलु तीर्थमुटाहारकचतुष्टयभिल्ले दु नाल्कं कळेदु चतुर्थसत्वस्थानदोळु तीर्थमुमाहारकचतुष्टय मुमिल्ले दरदुभं कळेदु प्रकृतिसत्वस्थाांगळ, नूर- ५ मूवत्ते] नूर मूवत्तेनूरमूवत्तनाल्कुनूरमूवत्तमूरुं प्रकृतिसत्वस्थानंगळ, नाल्केयप्पुवु । ई नाल्कु स्थानंगळोळ भुज्यमानमनुष्यने बोदो दे भंगमानुत्तिरलु नाल्कुस्थानंगळ्गं नाल्के भंगंगळप्पुवु । संदृष्टि : | क्ष० अपू] १३८ १३७ १३४ १३३ एदे सत्तट्ठाणा अणियट्टिस्सवि पुणो वि खविदेवि । सोलस अट्ठक्केक्कं छक्केक्कं एक्कमेक्क तहा ।।३८६।। एतानि सत्वस्थानानि अनिवृत्तेरपि पुनरपि क्षपितेपि षोडशाष्टकैकं षष्टकमेकमेकं तथा। ई क्षपकानिवृत्तिकरणंगे पेळद नाल्कु सत्वस्थानंगळ क्षपकानिवृत्तिकरणंगमप्पुवु । मत्तं षोडश अष्ट एक एक षट्क एक एक एक प्रकृतिगळ क्षपियिसल्पडुत्तं विरलु क्रमदिद नूरिप्पत्तेरडु मष्टात्रिंशच्छतकं स्यात् । तच्चतुःप्रतिकं कृत्वा प्रयमे तो हारः समस्तीति शून्यमपनयेत्, द्वितीये तोर्थ, तृतीये आहारकचतुष्क, चतुर्थे उभयं एवं सत्त्वस्यानानि अष्टात्रिंशच्छतकसप्तत्रिंशच्छतकचतुस्त्रिशच्छतकत्रयस्त्रिशच्छत- १५ कानि चत्वारि तेषु प्रत्येकं भुज्यमानमनुष्यायुरेवेति भंगा अपि चत्वारः ॥३८५।। एतानि क्षपकापूर्वकरणोक्तचत्वारि स्थानानि क्षपकानिवृत्तिकरणस्यापि भवंति पुनः षोडशाष्टककेषु षट्ककककेषु क्षपितेषु क्रमेण द्वाविंशतिशतकचतुर्दशशतकत्रयोदशशतकद्वादशशतकषडुतरशतकपंचोत्तरशतकचतु चार पंक्ति करना । प्रथममें तीर्थकर और आहारक चतुष्क हैं अतः शून्य घटाना। दूसरीमें तीर्थंकर, तीसरीमें आहारक चतुष्क, चौथीमें दोनों घटानेपर एक सौ अड़तीस, एक सौ २० सैतीस, एक सौ चौंतीस और एक सौ तैतीस प्रकृतिरूप चार स्थान होते हैं। उनमेंसे प्रत्येकमें भुज्यमान मनुष्यायु एक-एक ही भंग होता है । अतः भंग भी चार ही हैं ॥३८५।। क्षपक अपूर्वकरणमें जो ये चार स्थान कहे हैं ये क्षपक अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं। फिर सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक प्रकृतियोंका क्षय करनेपर एक सौ बाईस, एक सौ चौदह, एक सौ तेरह, एक सौ बारह, एक सौ छह, एक सौ पाँच, एक सौ चार, एक २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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