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गो० कर्मकाण्डे
द्रव्यंगळ क्रमदिदं दुर्भगनामं मोदलागि एकेंद्रियजातिनामपय॑तं कुडल्पडुवुवु। तत्रत्य घरमशेषेकभागद्रव्यं स १ तिर्यग्गतिनामदोळु कुडल्पडुगुमिदुपलक्षणमिन्त शेषनामबंधस्थानं
८९।९।२० गळोळमरियल्पडुगुमी पेळल्पट्ट साधारणसूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तजीवभवदोळुदयोचितत्रयोविंशति
प्रकृतिनामबंधस्थानस्वामिगळु तिग्मिनुष्यगतिद्वयमिथ्यादृष्टिजीवंगळप्परु । पिंडद्रव्यं च पुनः ५ शरीरनामपिंडप्रकृतिप्रतिबद्धद्रव्यं मत्ते स्वबंधस्वपिंडप्रकृतिषु सहबंधंगळप्प औदारिकतैजसकार्मण
शरीरनामस्वपिडप्रकृतिगळोळ औदारिकं मोदलागि तैजसकार्मणंगळोळु तम्मोळधिकक्रममक्कुमिन्तु त्रयोविंशतिनामसबंपिंडापिडप्रकृतिस्थानदोळेतु द्रव्यविभंजनमन्ते वक्ष्यमाण शेष । २५।२६।
बहुभागः स ० ८. अनादेये देयः । एवं प्रतिभागभक्तबहुभागं बहुभागं दुर्भगायेकेन्द्रियान्तेषु दत्वा
चरमशेषकभागं स १ तिर्यग्गतौ दद्यात् । इदमुपलक्षणं, तेन शेषनामबन्धस्थानेषु अपि ज्ञातव्यम् । इदं
८९९२० १० त्रयोविंशतिकं साधारणसूक्ष्मैकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकभवोदयोचितं नरतिर्यग्मिध्यादृष्टिरेव बध्नाति । पिण्डद्रव्यं च
पुनः शरीरनामपिण्डप्रकृतिप्रतिबद्धद्रव्यं पुनः सहबन्धौदारिकतैजसकार्मणेषु औदारिकतोऽधिकक्रमेण देयम् ।
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आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रतिभागसे भाग दें। उसमें से बहुभाग अन्तमें कही निर्माण प्रकृतिको देवें। शेष रहे एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग अयशस्कीतिको
देना। शेष रहे एक भागमें प्रतिभागका भाग देकर बहुभाग अनादेयको देवें। इसी प्रकार १५ शेष रहे एक भागमें प्रतिभागसे भाग दे-देकर बहुभाग क्रमसे दुर्भग, अशुभ, अस्थिर, साधा
रण, अपर्याप्त, सूक्ष्म, स्थावर, उपघात, अगुरुलघु, तिथंचानुपूर्वी, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, हुण्डक संस्थान, शरीररूप पिण्ड प्रकृति और एकेन्द्रिय जातिको देवें। शेष रहे एक भागको सबसे पहले कही तिथंचगतिको दें। सो पूर्वमें जो इक्कीस भाग कहे थे, उन एक-एक भागमें
अपना-अपना पीछे कहा भाग मिलानेसे अपनी-अपनी प्रकृतिका द्रव्य होता है। इसी प्रकार २० जहाँ एक साथ पच्चीस, छब्बीस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतियोंका एक
साथ बन्ध होता है उनका भी बँटवारा कर लेना। जहाँ ऊपर में एक यशस्कीर्तिका ही बन्ध होता है वहाँ नामकर्सका सब द्रव्य उस एक ही प्रकृतिको देना। इन स्थानों में पिण्ड प्रकृतिके द्रव्यका बंटवारा बन्धको प्राप्त पिण्ड प्रकृतिके भेदोंमें करना। जैसे तेईस प्राकृतिक स्थानमें
एक शरीर नामक पिण्ड प्रकृतिके तीन भेद हैं। सो बँटवारेमें शरीर प्रकृतिको जो द्रव्य मिला, २५ उसे प्रतिभागसे भाग देकर बहुभागके तीन समान भाग करके तीनोंको देना। शेष एक भागमें
प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग कार्माणको देना। शेष एक भागमें प्रतिभागसे भाग देकर बहुभाग तैजसको देना। शेष एक भाग औदारिकको देना। पूर्वोक्त समान भागमें इन भागोंको मिलानेपर अपना-अपना द्रव्य होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना। जहाँ पिण्डके भेदों में से एक ही का बन्ध हो वहाँ पिण्ड प्रकृतिका सब द्रव्य उस एक ही प्रकृतिको देना चाहिए।
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