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गो० कर्मकाण्डे
सम्यक्त्वप्रकृतियनुवेल्लनमं माडिदोडे नूर नाल्वत्तरडु सत्वमक्कु १४२। मवरोळ, सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियनुवेल्लनमं माडिदोडे नूरनाल्वनोदु प्रकृतिसत्वमक्कु १४१ मितु स्वस्थानबोळ चतुर्गतिय मिथ्यादृष्टिगळोळ द्वेलनमं माडिव पक्षदोळ सत्वंगळप्पुवुद्वेल्लनमं माडद पक्षदोळ नूर नाल्वत्तय्दु
प्रकृतिसत्वमक्कु १४५ । मुत्पन्नस्थानदोळे केंद्रिय द्वौद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रिय पृथ्विकायिक अप्कायिक५ वनस्पतिकायिक ब सप्तस्थानदोळं नूर नाल्वत्तय्, नूर नाल्वत्तमूरुं नूर नाल्वत्तेरडुं नूर नाल्वत्तों दूं प्रकृतिसत्वमप्पुवु । आल्ल एक विकलत्रयंगळु सुरद्विकमनुद्वेल्लनमं माडिद पक्षदोलु स्वस्थानदोळ नूरमूवत्तो भत्तु प्रकृतिसत्वमकुमवरोळु नारकचतुष्टयमनुद्वेल्लनमं माडिद पक्षदोळु स्वस्थानदोळ नूर मूवतय्दु प्रकृतिसत्वमक्कु-१३५ । मुत्पन्नस्थानदोळ तेजस्कायिक वायुकायिकंगळोळ
मनुष्यायुष्यं रहितमागि नूर नाल्वतनाल्कुं नूर नाल्वत्तेरडुं नूर नाल्वत्तोढुं नूर नाल्वत्तुं नूर१० मूवत्तटुं नूर मूवत्तनाकुं सत्वंगळप्पुवल्लि उच्चैग्ोत्रमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ नूर
मूवत्तमूरु प्रकृतिगळ, स्वस्थानदोळ सत्वमक्कुमवरोळ नरकद्विकमनुवेल्लनमं माडिद पक्षदोळ. नूर मूवत्तोंदु प्रकृतिगळ स्वस्थानदोळ सत्वमक्कुमुत्पन्नस्थानदो केंद्रियादिसप्तस्थानंगळोळ नूर मूवत्तमूरुं नूर मूवत्तोंसत्वमप्पुवु । संदृष्टि :
तीर्थकग्नरकदेवायुरसत्वचातुर्गतिकसंक्लिष्टमिथ्यादृष्टेराहारकद्विके उद्वेल्लिते त्रिचत्वारिंशच्छतं सत्त्वं । १५ पुनः सम्यक्त्वप्रकृतावुद्वेल्लितायां वाचत्वारिंशच्छतं । पुनः सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतावुद्वेल्लितायां एक चत्वारिशच्छतं,
स्वस्थाने स्यात् । अकृतोद्वेल्लनस्य तस्य पंचचत्वारिंशच्छतमेव । उत्पन्नस्थाने एकद्वित्रिचतुरिद्रियपृथ्व्यब्वनस्पतिकायिकेषु तानि चत्वारि सत्वानि । पुनः सुरद्विके उद्वेल्लिते स्वस्थाने एकोनचत्वारिंशच्छतं । पुनरिकचतुष्के उल्लिते स्वस्थाने पंचत्रिशच्छतं । उत्पन्नस्थाने तेजोद्विके मनुष्यायुर भावाच्चतुश्चत्वारिंशच्छतं
द्वाचत्वारिंशच्छतं एकचत्वारिंशच्छतं चत्वारिंशच्छतं अष्टात्रिंशच्छतं चतुस्त्रिशच्छतं च । पुनः स्वस्थाने २. नहीं हैं। अर्थात् यदि उद्वेलना न हुई तो इनका सत्त्व होता है और उद्वेलना हुई तो सत्त्व
नहीं होता; जिसके तीर्थकर, नरकायु देवायुका सत्त्व नहीं है ऐसे चारों गति के संकिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीवके आहारकद्विककी उद्वेलना करनेपर एक सौ तैंतालीसका सत्त्व होता है। पुनः सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर एक सौ बयालीसका और मिश्रमोहनीय
की उद्वेलना करने पर एक सौ इकतालीसका सत्त्व स्वस्थानमें होता है। उद्वेलना न करनेपर २५ उसके एक सौ पैंतालीसका ही सत्त्व होता है। उत्पन्न स्थानमें एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,
चौडन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकायमें वे चारों सत्त्व एक सौ पैंतालीस. एक सौ तैंतालीस, एक सौ बयालीस, एक सौ इकतालीस होते हैं। पुनः देवगति देवानुपूर्वीकी उद्वेलना करनेपर स्वस्थानमें एक सौ उनतालीसका सत्त्व होता है। पुनः नारक चतष्ककी
उद्वेलना करनेपर स्वस्थानमें एक सौ पैंतीसका सत्त्व होता है। उत्पन्न स्थानमें तेजकाय ३० वायुकायमें मनुष्यायुका भी सत्व न होनेसे बिना उद्वेलना हुए सत्त्व एक सौ चवालीस,
आहारकद्विककी उद्वेलना होनेपर एक सौ बयालीस, सम्यक्त्वके उद्वेलना होनेपर एक सौ इकतालीस, मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना होनेपर एक सौ चालीस, देवद्विककी उद्वेलना होनेपर एक सौ अड़तीस, नारक चतुष्ककी उद्वेलना होनेपर एक सौ चौंतीसका सत्त्व होता है । पुनः स्वस्थानमें उच्चगोत्रकी उद्वेलना करनेपर तेजकाय वायुकायमें सत्त्व एक सौ तेतीस होता है,
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