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गो० कर्मकाण्डे
प्रकृतीनामेकजीवस्य एकसमये सबन्धप्रकृतिजघन्यादिस्थानानां बन्धकाले तद्गतप्रकृतीनां स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धभेदा भवन्ति इति मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषु रचनाविशेषो वृत्तिकारेण दश्यते
५।४।३।२।१
२२।२।२०११९॥
१८
२८।२९॥३०॥ ३१११ २८॥२९॥३०॥
५५/५६१५७१५८ २६ ५६५७३५८५९
। १
५
२८।२९ २८०२९
६०।६१
२८।२९।३०
६४/६५/६६
२८.२९
६३२६४
२८.२९/३०
७१७२।७३
६७१६९७०) ७२।७३।७४
द ९।६।४
मो.२६।२२।२१॥ |वे.२ । १७११३।९।५ आ.४
। ४।३।२।१ ।
२३।२५।२६।
२८२९।३० ना २३।२५।२६।
२८।२९।३०। ३११।
गो.२ अ.५
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मोड़ों में से प्रथम मोडेमें स्थित सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष एक सौ नौ प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करता है।
यहाँ चार प्रकारके बन्धोंमें प्रथम कहे प्रकृतिबन्धमें मूल और उत्तर प्रकृतियोंका एक जीवके एक समयमें एक साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्यादि भेदरूप स्थिति अनुभाग
और प्रदेशबन्धके भेद होते हैं । सो मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें टीकाकार रचनाविशेष दिखाते हैं
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