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________________ गो० कर्मकाण्डे इन्नु लब्ध्यपर्याप्तकमिथ्याष्टिगळ्गे सुरनारकायुरपूर्णे वैक्रियिकषट्कमपि नास्ति एंदी सूत्राभिप्रायदिदं लब्ध्यपर्याप्तकतिय्यंचमिथ्याष्टिगळु तिर्यग्मनुष्यायुद्धयमं कटुवरप्पुरिदं शेषसुरनारकायुद्धयमुमं वैक्रियिकषट्कममं कटुव योग्यतेयिल्लप्पुरिंदमा ८ प्रकृतिगळं तिर्यग्गतिय बंधयोग्यप्रकृतिगळु ११७ रोळगे कळेदोडे १०९ प्रकृतिगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु॥ अनंतरं मनुष्यगतियोळु बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिगळं गुणस्थानंगलोळु पेळ्दपरु : तिरियेव णरे णवरि हु तित्थाहारं च अस्थि एमेव । सामण्णपुण्णमणुसिणिणरे अपुण्णे अपुण्णेव ॥११०।। तिरश्चीव नरे नवं खलु तोहारं चास्त्येवमेव । सामान्यपूर्णमानुषीषु नरे अपूर्णे अपूर्णे इव ॥ १० तिर्यग्गतियोळेतु पेन्दत मनुष्यगतियोळुमकुम ते दोडे अविरते व्युच्छित्तयश्चतस्रः एंबिदुवु। मा असंयतन नाल्करिंद मुंदण ६ व्युच्छित्तिप्रकृतिगळु सासादननोळु व्युच्छित्तिगळप्पु. बेबिदुर्बु । मत्तं नवीनमुंटदावुदंदोडे तीर्थाहारं चास्ति तीर्थमुमाहारकद्वयमुं बंधमुंटु खलु स्फुटएकीकृत्य तस्मात् सुरचतुष्कस्य बन्धे निक्षेपात् । व्युच्छित्तिः अप्रत्याख्यानकषाया एव चत्वारः । तिर्यग्लब्ध्य पर्याप्तकमिथ्यादृष्टी तिर्यग्मनुष्यायुर्बन्धसद्भावात् शेषभुरनारकायुषी वैक्रियिकषट्कमपि बन्धो नास्तीति १५ तदष्टके तिर्यग्गतिबन्धेनीते शेषं नवोत्तरशतमेव बन्धयोग्यं भवति ॥१०९॥ अथ मनुष्यगती बन्धव्युच्छित्ति बन्धाबन्धप्रकृतीर्गुणस्थानेषु प्ररूपयति तिर्यग्गतिवन्मनुष्यगतो भवति । अविरते व्युच्छित्तिश्चत्वारः । तदुपरितनानां षण्णां व्युच्छित्तिः सासादनसम्यग्दृष्टावेव इति विशेषस्य उभयत्र समानत्वात् । पुनः नवीनमस्ति । तत् किम् ? तीर्थकरत्वमा मिलानेसे उनहत्तर होती हैं। अबन्धमें बयालीस; क्योंकि सासादनमें हुई व्युच्छित्ति और २० अबन्धको मिलाकर उसमें से सुरचतुष्कको बन्धमें ले जानेपर बयालीस रहती हैं। व्युच्छित्ति चार अप्रत्याख्यान कषायकी । तियश्चलब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टिमें तिर्यश्चायु मनुष्यायुका बन्ध सम्भव है। शेष देवायु, नरकायु और वैक्रियिक षट्कका बन्ध नहीं होता। अतः तियश्चगतिमें बन्धयोग्य एक सौ सतरहम-से ये आठ कम करनेपर शेष एक सौ नौ बन्धयोग्य होती हैं ।।१०९॥ २५ सामान्यादि चार पर्याप्त तियश्चोंमें निर्वृत्यपर्याप्त तिर्यञ्चोंमें बन्धयोग्य ११७ बन्धयोग्य १११ मि. सा. मिश्र असं. देश. मि. सा. असं. अबन्ध ० १६ ४८ ४७ ५१ ४ १७ ४२ बन्ध ११७ १०१ ६९ ७० ६६ १०७ ९४ ६९ ब. व्यु. १६ ३१ ० ४ ४ १३ २९ ४ मनुष्यगतिमें गुणस्थानोंमें बन्ध, व्युच्छित्ति-बन्ध और अबन्ध कहते हैं तियश्चगतिके समान मनुष्यगतिमें होता है। अर्थात् असंयतगुणस्थानमें चारकी व्युच्छित्ति होती है । उससे ऊपरकी छह की व्युच्छित्ति सासादन सम्यग्दृष्टीमें ही होती है यह विशेषता दोनों में समान है । नवीनता यह है कि मनुष्यगतिमें तीर्थंकर और आहारकद्विकका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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