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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका अप्पुबदते दोडे मिश्रकाययोगिगळोळायुबंधमिल्लप्पुरिदं । नाल्कायुष्यंगळं ४ नरकद्विकमुमिन्तु ६ प्रकृतिगळु कळेदुवप्पुरिदं। ई निवृत्यपर्याप्तकरुगळिगे गुणस्थानत्रयमक्कुमल्लिमिथ्यादृष्टिगुण स्थानदोळु बंधप्रकृतिगळु १०७ अप्पुवेक दोर्ड निर्वृत्यपर्याप्तकालदोळु मिथ्यादृष्टिगं सासादनंगं सुरचतुष्टयमं कटुव योग्यते यिल्लप्पुरिनवं कळे दातनोळ अबंधप्रकृतिगळ्माडिद वप्पुरिदं । आ चतुविधसासादननिवृत्त्यपर्याप्ततिथ्यचरुगळ्गे बंधप्रकृतिगळ ९४ अप्पुर्वते दोडे मिथ्यादृष्टिय ५ बंधव्युच्छित्तिगळु १३ कळेदोडप्पुवप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळुमल्लि १७ अप्पुर्वते दोडे मिथ्यादृष्टिय बंधव्युच्छित्तिगळुमनातन अबंधप्रकृतिगळुमं कूडिदोडक्कुमप्पुरिदं । असंयतत्रिविधतिय्यंचनिर्वृत्य पर्याप्तरुगळ्गे बंधप्रकृतिगळ, ६९ अप्पुवे ते दोडे सासादनबंधव्युच्छित्तिगळु २९ इवनातन बंधप्रकृतिगळोळकळेदोडे ६५ अप्पुववरोळ सुरचतुष्कर्म कूडिदोड अप्पुवप्पुरिदं। अबंधप्रकृतिगळोळातनोळु ४२ अप्पुर्व ते दोडे सासादनबंधव्युच्छित्तिगळुमं २९ । अबंधप्रकृतिगळुमं १७ कूडिदोडे १० ४६ रिवरोळु सुरचतुष्कं तेगदु असंयतनोळकूडिमुदप्पुरिदं : |सा। पं । अप। ० अ ४ ६९ | ४२ सा २९ ९४ | १७ मि | १३ | १७ | ४ | एव चत्वारः वज्रवृषभनाराचादीनां षण्णां प्राक सासादन एव बन्धच्छेदात् । देशसंयतस्य बन्धः षट्षष्टिः असंयतव्युच्छित्तिचतुष्कस्य तद्वन्धेऽपनीतत्व व्युच्छित्तिः स्वस्य चतुष्कम् । चतुर्विधतिर्यग्निवृत्त्यपर्याप्तानां बन्धयोग्यप्रकृतयः एकादशोत्तरशतमेव । मिश्रकाययोगित्वादायुश्चतुष्कनरकद्विकयोर्बन्धाभावात् तेषां च गुणस्थानत्रयमेव । तत्र मिथ्यादृष्टो बन्धः सप्तोत्तरशतं १५ निर्वृत्त्यपर्याप्तकाले मिथ्यादृष्टिसासादनयोः सुरचतुष्कस्याबन्धात् । व्युच्छित्तिः त्रयोदश नरकायुर्नरकद्विकयोरभावात् । अबन्धः सप्तदश मिथ्यादृष्टिव्युच्छित्यबन्धयोर्मलत्वात् । असंयतस्य बन्धः एकान्नसप्ततिः सासादनबन्धे तद्व्युच्छित्येकान्नत्रिंशतमपनीय सुरचतुष्कस्य मेलनात् । अबन्धः द्वाचत्वारिंशत् सासादनव्युच्छित्यबन्धी व्युच्छित्ति चार अप्रत्याख्यानकषायोंकी, क्योंकि वज्रर्षभनाराच आदि छहकी पहले सासादनमें ही बन्धव्युच्छित्ति हो गयी है। देशसंयतमें बन्ध छियासठका, क्योंकि असंयतमें २० बँधनेवाली सत्तर प्रकृतियोंमें-से उसमें व्युच्छिन्न चार घट जाती हैं। अबन्ध इक्यावनका, असंयतमें व्युच्छिन्न उसमें मिल जाती हैं। व्युच्छित्ति चार। उक्त चारों प्रकार के निर्वृत्यपर्याप्ततिर्यञ्चोंके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ ग्यारह हैं। क्योंकि मिश्रकाययोग होनेसे चारों आयु और नरकद्विकका बन्ध नहीं होता तथा उनमें तीन ही गुणस्थान होते हैं। उनके मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्ध एक सौ सात; क्योंकि निवृत्याप्तिकालमें मिथ्यादृष्टि और सासादनमें सुरचतुष्कका बन्ध नहीं होता। व्युच्छित्ति तेरह; क्योंकि नरकद्विक और नरकायु- : का अभाव है । सासादनमें बन्ध चौरानबे; क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न तेरह घट जाती हैं। व्युच्छित्ति उनतीस, क्योंकि तिर्यञ्चायु मनुष्यायुका अभाव है। अबन्ध संतरह, क्योंकि मिथ्यादृष्टि में व्युच्छिन्न तेरह और अबन्धमें चार मिलकर सतरह होती हैं। असंयतमें बन्ध उनहत्तर; क्योंकि सासादनमें बन्ध चौरानबेमें-से उसमें व्युच्छिन्न उनतीस घटाकर सुरचतुष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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