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________________ गो० कर्मकाण्डे ४ 可在5行和何 ७० | ४७ ६९ । ४८ ३११ मि | १६ | ११७/० इल्लि मिथ्यादृष्टिय बंधप्रकृतिगळु ११७ रोळु मिथ्यात्वादि षोडश व्युच्छित्ति प्रकृतिगळं कळेदुळिद १०१ प्रकृतिगळु सासादनंगे बंधप्रकृतिगळक्कुमा कळेद १६ प्रकृतिगळु आतंगबंधप्रकृतिगळप्पुउ । बंधव्युच्छित्ति प्रकृतिगळु ३१ अप्पुवेक दोडे चतुविधतिय्यंचासंयतसम्यग्दृष्टिगळु वज्रऋषभनाराचसंहननमुमं औदारिकद्वयमुमं मनुष्यद्वितयमुमं मनुष्यायुष्यमुमं कट्टरप्पुरिंदमवं तगदु सासादननोळ व्युच्छित्तिगळमाडल्पटुरिदं। मिश्रंगे बंधप्रकृतिगळ ६९ अप्पुर्वे ते दोड सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळु ३१ नातन बंधप्रकृतिगळोळ्कळदल्लिईदेवायुष्यमुमं कळेदोडक्कुमप्पुदरिदं अबंधप्रकृतिगळल्लि ४८ प्रकृतिगळप्पुर्वतदोडे सासादनन बंधव्युच्छित्तिगळुमबंधप्रकृतिगळं कूडि देवायुष्यं सहितमागियप्पुवप्पुरिदं। तिर्यक्चतुष्टयासंयतसम्यग्दृष्टिगे बंधप्रकृतिगळु ७० अप्पुर्व ते दोडे मिश्रनोळकळेद देवायुष्यमनातं कटुगुमप्पुरिदं अबंधप्रकृतिगळु ४७ अप्पुवा फूडिद १. देवायुष्यं कळदुदप्पुरिदं । चतुविधतियंचदेशवतिगळगे बंधप्रकृतिगळ ६६ अप्पुर्वे तेंदोडे असंय तन बंधव्युच्छित्तिगळ्नाल्कुमनातन बंधप्रकृतिगळोळ कळेदोडक्कु बुदत्यं । अबंधप्रकृतिगळु ५१ अप्पुर्वतेंदोडसंयतन अबंधप्रकृतिगळोळु ४७ आतनव्युच्छित्तिगळ्नाल्कु कूडिदोडक्कु में बुवत्थं । बंधव्युच्छित्तिगळुमल्लि ४ अप्पुवी चतुविधतियंचनित्यपर्याप्तकरुगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १११ AAAAA बन्धाभावात् । तत्सामान्यादिचतुर्विधतिरश्चां मिथ्यादृष्टी बन्धप्रकृतयः सप्तदशोत्तरशतम् । बत्र मिथ्यात्वादि १५ षोडशव्युच्छित्तिमपनीय शेषाः १०१ । सासादनस्य बन्धः। अपनीतास्ताः १६ अबन्धः, व्युच्छित्तिरेकत्रिंशत् । कुतः ? असंयतव्युच्छित्तेरु परितनषण्णामत्रैव छेदात् । मिश्रे बन्धः एकान्नसप्ततिः सासादनबन्धे तव्युच्छित्तर्देवायुषश्च अपनयनात् । अबन्धोऽष्टचत्वारिंशत् सासादनव्युच्छित्त्यबन्धयोर्देवायुर्मेलनात् । व्युच्छित्तिः शून्यम् । असंयतस्य बन्धः सप्ततिः देवायुषोऽत्र बन्धसंभवात् । अबन्धः सप्तचत्वारिंशत् देवायुषोऽपनीतत्वात् । व्युच्छित्तिः अप्रत्याख्यानकषाया का बन्ध नहीं है क्योंकि जो प्रकृतियाँ आगामी भवमें उदयके योग्य नहीं हैं उनका बन्ध नहीं होता। अतः सामान्य आदि चार प्रकारके तिर्यञ्चोंके मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ एक सौ सतरह हैं। इनमें से सोलहकी व्युच्छित्ति घटानेपर शेष एक सौ एकका बन्ध सासादनमें, अबन्ध सोलह, व्युच्छित्ति इकतीस; क्योंकि असंयतमें व्युच्छिन्न होनेवाली ऊपरकी छह प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति सासादनमें ही होती है। मिश्रमें बन्ध उनहत्तर क्योंकि २५ सासादनमें बंधनेवाली एक सौ एक प्रकृतियोंमें-से व्युच्छिन्न इकतीस तथा देवायु कम हो जाती हैं । अबन्ध अड़तालीस, क्योंकि सासादनमें व्युच्छिन्न इकतीस और अबन्धमें सोलह तथा देवायुके मिलनेसे अड़तालीस होती है । व्युच्छित्ति शून्य । असंयतके बन्ध सत्तरका, क्योंकि यहाँ देवायुका बन्ध सम्भव है। अबन्ध सैतालीस क्योंकि देवायु कम हो गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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