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________________ ६२२ गो० कर्मकाण्डे द्विकषट्कसप्ताष्टनवप्रकृतिरहितपंचसत्वस्थानंगळं तिर्यकक्रमदिनिरिसि मत्तमा प्रकारविंद कळकळगे तिर्यक्कागि नाल्कुं पंक्तियं माडि प्रथमपंक्तियोळु शून्यमनम्वु स्थानंगळोळ कळेवुदु । द्वितीयपंक्तिय पंचस्थानंगळोळु प्रत्येकमों दो कळेवुदु । तृतीयपंक्तिय पंचस्थानंगळोळु प्रत्येक नाकुं नाल्क कळेदु चतुर्थपंक्तियो पंचमस्थानंगळोळु प्रत्येकं अय्वरकळवुवंतु कळेव नाल्कुं पंक्तिगळोळु बद्धायुष्यंगे सत्वस्थानंगाळप्पत्तप्पुवबद्धायुष्यंगे प्रथमद्वितीयतृतीयचतुत्यपक्तिय पंच पंच सत्वस्थानंगळोलु प्रत्येकमा दोंदं कळेदु तंतम्म पंक्तिगळ कळगे केळगे स्थापिसुत्तं विरलु सत्व. स्थानंगळिप्पत्तप्पुवु । अंतु असंयतंग सत्वनंगळ नाल्वत्तप्पुवु । यिलिल प्रथमपंक्तिद्वयमुं तृतीयपंक्तिद्वयमु सतीर्थस्थानंगळप्पुवितर द्वितीयपंक्तिद्वयमुं चतुर्थपंक्तिद्वितयमुं तीर्थरहितस्थानंगळे दु पेळ्दपरु : तित्थाहारे सहियं तित्थूणं अह य हारचउहीणं । तित्थाहारचउक्केणूणं इदि चउपडिट्ठाणं ॥३७७।। तोहारसहितं तीर्थोनमथ चाहारचतुर्थीनं । तीहारकचतुष्केणोनमिति चतुः प्रतिस्थानं ॥ द्विकषट्कसप्ताष्टनवप्रकृतिरहितपंचस्थानानि तिर्यक्रमेण विन्यस्य पुनस्तथैवाघोषः चतुःपंक्तोः कृत्वा १५ प्रथमपंक्ती पंवस्थानेषु शून्यमपनयेत् । द्वितीयपंक्तो एकैकं, तृतीयपंक्तो चतुष्कं चतुष्क, चतुर्थपंक्तो पंच पंच । एवं बद्धायुष्कस्य विंशतिः सत्त्वस्थानानि । अबद्धायुष्कस्य तथा पंचपंक्तीनां पंच पंच सत्त्वस्थानेषु प्रत्येकमेककमपनीय स्वस्वाधःस्थापितेषु विंशतिः, मिलित्वा असंयतस्य चारिंशद्भवंति ॥ ३७६ ॥ अथोक्तपंक्तिचतुष्के तोहारयुतायुतत्वेन विशेषमाह दो, छह, सात, आठ, नौ प्रकृति रहित पाँच स्थानोंको बराबर-बराबर लिखकर पुनः २. उसी प्रकार नीचे-नीचे पाँच स्थानोंकी चार पंक्तियाँ लिखो। उनमें से प्रथम पंक्तिके पाँच स्थानों में शून्य घटाओ। अर्थात् वे पाँचों स्थान ज्योंके त्यों दो, छह, सात, आठ और नौ प्रकृति रहित होते हैं। दूसरी पंक्तिमें-से एक-एक प्रकृति और घटाओ। अर्थात् वे पाँचों स्थान तीन, सात, आठ, नौ, दस रहित जानना। तीसरी पंक्तिके पाँचों स्थानों में से चार चार प्रकृति घटाना। अर्थात् वे पाँचों स्थान छह, दस, ग्यारह, बारह, तेरह प्रकृति रहित २५ जानना। चौथी पंक्तिमें पाँच-पाँच प्रकृति घटाना । अतः वे पाँचों स्थान सात, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह प्रकृति रहित होते हैं। इस प्रकार बद्घायुके बीस स्थान होते हैं। इसी प्रकार अबद्धायुको चार पंक्तियोंके पाँच-पाँच सत्त्वस्थानों में से प्रत्येकमें बध्यमान आयुरूप एक-एक प्रकृति घटानेपर बीस स्थान होते हैं । सब मिलकर असंयतमें चालीस सत्त्वस्थान होते हैं ॥३७६।। आगे चारों पंक्तियोंमें तीर्थकर और आहारक चतुष्ककी अपेक्षा जो विशेष है उसे ३० कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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