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________________ कटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका इंद्रियमार्गणेयं पेळवल्लि मोवलोळे केंद्रियविकलत्रयंगळगे पेलवपद : पुदिरं विगिविगले तत्थुष्यण्णो हु सासणो देहे । पज्जति ण वि पावदि इदि णरतिरियाउगं णत्थि ॥ ११३ ॥ पूर्णेतर व वेकेंद्रियवि कलत्रये तत्रोत्पन्नः खलु सासादनो देहे । पर्याप्त न प्राप्नोति इति नरतिर्य्यगायुषी नस्तः ॥ तिथ्यंच लब्ध्यपर्याप्तकनोळ पेलवंते एकेंद्रियंगळोळं विकलेंब्रियंगळोळं पेळल्पडुगुमेकँदोडे तीर्थमुमाहारद्वयमुं सुरनारकायुद्वयमुं वैक्रियिकषट्कमुमेंब ११ प्रकृतिगळं कळेदु शेष १०९ प्रकृतिगळु बंधयोग्यंगळपुर्वारमा एकेंद्रिय विकलत्रयंगळगे गुणस्थानद्वितयमेयक्कु- एकेंद्रिय विकलत्रक्के ९७ भावात् मिल्लि मिथ्यादृष्टिगळगे बंधव्युच्छित्तिगळु १५ प्रकृतिगळपुषेंतेंदोडे तन्न मिथ्यात्वादि बंघव्युच्छित्तिगळु १६ रोळगे नरकद्विकमुं नरकायुष्यमं कळेदु १३ प्रकृतिगलप्पुवदरोळगे १० तिग्मनुष्यायुर्द्वयमं कूडि बोडे तत्प्रमाणप्रकृति संख्येयक्कुमप्पुदरिवं बंधप्रकृतिगळ १०९ । अबंधशुन्यमक्कु । सासावननोळ, तत्रोत्पन्नः खलु सासावनो देहे पर्याप्त न प्राप्नोतीति नरकतिध्यंगायुषी नस्तः । एंवितु एकेंद्रियविकलत्रयदोळ्पुट्टिव सासादनं निवृत्यपर्थ्याप्तकालमन्त हूपर्यंत शरीरापर्य्याप्ति कालवोळु मिश्रकाययोगियप्पुर्वारवं आयुब्बंधयोग्यतेयिल्लवुकारणमागि तत्कालपतं तद्गुणस्थानकालमल्पमप्पुर्वीरवं ती पोकुमदु कारणमागि मनुष्यायुष्यमं तिर्य्यगायुष्यमुं १५ इन्द्रियमाणायां एक विकलेन्द्रियेषु लब्ध्यपर्यातकव तीर्थ करत्वाहारकद्वय सुरनारकायुर्वे क्रियिकषट्कबन्धाबन्धयोग्यं नवोत्तरशतम् । गुणस्थाने द्वे । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः पञ्चदश । १५ । तत्षोडश के नरकद्विकनरकायुषोरभावे नरतिर्यगायुषोः क्षेपात् तत्क्षेपोऽत्रैव कृतः । तत्र तेषु एकविकलेन्द्रियेषु उत्पन्नः खलु सासादनः स्वकीयकालस्य निर्वृत्त्यपर्याप्तकालात् स्तोकत्वात् सासादनत्वे शरीरपर्याप्त न प्राप्नोतीति कारणात् सा २९ ९४ १५ मि १५१०९ ० १. मःतयो । क - १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only ५ २० इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियमें लब्ध्यपर्याप्तकके समान तीर्थंकर, आहारक द्विक, देवायु, नरकायु और वैकिविकपटकका बन्ध न होनेसे बन्धयोग्य एक सौ नौ हैं । उनमें मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति पन्द्रह क्योंकि उसमें व्युच्छिन्न होनेवाली सोलह प्रकृतियों में से नरकद्विक और नरकायुका बन्ध न होने तथा मनुष्यायु तिर्यञ्च युके मिलाने से होता है । इसका कारण यह है कि उन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में उत्पन्न सासादन गुणस्थानवर्ती जीव सासादनका काल निर्वृत्यपर्यातक कालसे थोड़ा होनेके कारण सासादन अवस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं करता, इससे यहाँ सासादन में मनुष्यायु तिर्यवायुका बन्ध २५ www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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