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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६०१ र भगंगऊप्पुवु । अष्टाविंशतिः सूक्ष्मतापरायनुभयश्रेणिय इप्पत्ते टु सत्वस्थानंगळिगप्पत्तेंदु भंगंगळप्पुवु। चतुर्विशतिः उपशांतकषायन इप्पत्तनाल्कुसत्वस्थानंगळिगप्पत्तनाल्कुभंगंगळप्पुवु । अष्ट क्षीणकषायने टुं सत्वस्थानंगळ्गेटु भगंगळप्पु । चतुःसयोगिकेवलिय नाल्कु सत्वस्थानंगळ्गे नाल्कु भैगंगळप्पुषु । अष्टौ अयोगिकेवलिय आरं सत्वस्थानंगळ्गे टुं भंगंगळप्पुवु । संवृष्टिः| मि | सा | मि | अ | वे | प्र | अ | अपू अनि | सू | उ क्षीस अ स्थानं १८४ | ८/४०/४०४०/४० २४।४ २४१३६२४।४ | २४ ८४६ भंगः ५०/ १२ / ३६ | १२० ४८ ४० | ४० | २८ / ६२ २८ २४ ८ १४८ |
'अनंतरं मिथ्यावृष्टियोळु पदिने टुं स्थानंगळ्गे प्रकृतिसंख्येयनायुब्बंधाबंधविवर्तयिवं ५ पेक्रदपरु:
दुतिछस्सत्तहणवेक्करसं सत्तरसमूणवीसमिगिवीसं ।
हीणा सव्वे सत्ता मिच्छे बद्धाउगिदरमेगूणं ॥३६५॥ द्वित्रिषट्सप्ताष्टनवैकादशसप्तदशैकानविंशत्येकविंशतिहीनाः। सर्वसत्वानि मिथ्यावृष्टी बद्धायुषीतरस्मिन्नेकोनं ॥
___ बद्धायुषि मिथ्यादृष्टौ बद्धायुष्यनप्प मिथ्यादृष्टियोल द्विहीन त्रिहीन षड्ढीन सतहोनाष्टहोन नवहीनकादशहीन सप्तदशहीनकानविंशतिहीनेकविंशतिहीनसव्वं प्रकृतिसत्वमागुत्तं विरलु सत्वस्थानंगळु पत्त १० । अबद्घायुष्यनोळु मत्तों दोंदु प्रकृतिहीनमागुत्तं विरलु सत्वस्थानंगळवं
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उभयश्रेणीसूक्ष्मसांपरायस्याष्टाविंशतेरष्टाविंशतिः। उपशांतकषायस्य चतुर्विशतेश्चतुविशतिः। क्षीणकषायस्याष्टानामष्टो । सयोगकेवलिनश्चतण चत्वारः। अयोगिनः षण्णामष्टौ ॥३६४॥ अथ मिथ्यादृष्टावष्टादशस्थानानां प्रकृतिसंख्यामायुबंधाबंधविवक्षयाह
बद्धायुष्के मिथ्यादृष्टौ द्वित्रिषट्सप्ताष्टनवैकादशसप्तदशैकान्नविंशतिभिः पृथहीने सत्वे स्थानानि दश ।
साठ स्थानों के बासठ भंग होते हैं । दोनों श्रेणीसम्बन्धी सूक्ष्मसाम्परायके अठाईस स्थानों के अठाईस भंग होते हैं । उपशान्तकषायके चौबीस स्थानोंके चौबीस भंग होते हैं। क्षीणकषायके आठ स्थानोंके आठ भंग होते हैं । सयोगकेवलीके चार स्थानोंके चार भंग होते हैं। २० अयोगकेवलीके छह स्थानोंके आठ भंग होते हैं ॥३६४॥
आगे मिथ्यादृष्टि में अठारह स्थानोंकी प्रकृति संख्यामें आयुके बन्ध और अबन्धकी विवक्षापूर्वक कहते हैं
__ जिसके आगामी आयुका बन्ध हुआ है उसे बद्धायु कहते हैं और जिसके आगामी आयुका बन्ध नहीं हुआ उसे अबद्धायु कहते हैं । बद्धायु मिथ्यादृष्टिके सर्व सत्त्वरूप एक सौ २५ अड़तालीस प्रकृतियोंमें-से दो प्रकृति हीन पहला स्थान है। इसी प्रकार द्वितीयादि स्थान - क्रमसे तीन, छह, सात, आठ, नौ, ग्यारह, सतरह, उन्नीस और इक्कीस प्रकृति हीन होते हैं।
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