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________________ २६५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका लब्ध्यपर्याप्तकानां लब्ध्वपर्याप्त करुगळगे चरमत्रिभागे स्वस्थितियुच्छ्वासाष्टादशकभागमक्कुमवर चरमविभागप्रथमसमयं मोदगोडु चरमसमयपथ्यंतं परिणामयोगस्थानंगळु बोद्धव्यानि अरिय. ल्पडुवुवु। सगपज्जत्तीपुण्णे उवरि सम्वत्थ जोगमुक्कस्सं । सव्वस्थ होदि अवरं लद्धिअपुण्णस्स जेठं पि ॥२२१॥ स्वपर्याप्तौ पूर्णायामुपरि सर्वत्र योग उत्कृष्टः। सर्वत्र भवत्यवरो लब्ध्यपप्तिकस्योस्कृष्टोऽपि ॥ स्वपर्याप्तौ पूर्णायां सत्याम् स्वशरीरपाप्तिपरिपूर्णमागुत्तं विरलु तच्छरीरपाप्तिप्रथमसमयं मोवल्गोंडु उपरि मेले सर्वत्र सर्वस्थितिसमयंगळोळु उत्कृष्टयोगः उत्कृष्टयोगमुं सर्वत्र सर्वस्थितिसमयंगळोळु अवरो योगः जघन्ययोगमुं भवति परिणामयोगदोळक्कुं। लब्ध्य- ,. पर्याप्तकस्य लब्ध्यपर्याप्तकंगे स्वस्थितियुच्छ्वासाष्टादशैकभागचरमत्रिभागप्रथमसमयं मोदल्गोंडु चरमसमयपथ्यंतं मेले सर्वस्थितिसमयंगळोळ उत्कृष्टः उत्कृष्टपरिणामयोगमुं अपि सर्वत्र जघन्यपरिणामयोगमुं भवति अक्कुमेकेंदोडे पर्याप्तजीवंगळ परिणामयोगस्थानंगळनितुं घोटमानयोगंगळप्पुरिदं । हानिवृद्ध्यवस्थानरूपेण परिणम्यत इति परिणाम येदितु निरुक्तिसिद्धमक्कुं। अनंतरमेकांतानुवृद्धियोगक्के सामान्यजघन्योत्कृष्टस्थानंगळं जीवसमासेगळं कटाक्षिसि पेळदपरु : व्यानि । लब्ध्यपर्याप्तकानां च स्वस्थितेरुच्छवासाष्टादशकभागस्य चरमत्रिभोगप्रथमसमयादि कृत्वा चरमपर्यन्तं ज्ञातव्यानि ॥२२०॥ __ स्वस्वशरीरपर्याप्तौ पूर्णायां तत्प्रथमसमयात्प्रभृति उपरि सर्वस्थितिसमयेषु परिणामयोगस्य उत्कृष्टमपि , २० सर्वस्थितिसमयेषु जघन्यमपि भवति । लब्ध्यपर्याप्तकस्वस्वस्थितेरुच्छ्वासाष्टादर्शकभागस्य चरमत्रिभागप्रथमसमयमादि कृत्वा चरमसमयपर्यन्तं सर्वस्थितिविकल्पेषु उत्कृष्टपरिणामयोगोऽपि जघन्यपरिणामयोगोऽपि भवति । उभयजीवानां तानि योगस्थानानि सर्वाण्यपि घोटमानयोगा एव स्युः, हानिवृद्धयवस्थानरूपेण परिणमनात् ॥२२१॥ अथैकान्तानुवृद्धियोगस्याहअन्त समय पर्यन्त होते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके उच्छ्वासके अठारहवें भाग प्रमाण अपनी स्थिति के अन्तिम त्रिभागके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त होते हैं ।।२२०॥ अपनी-अपनी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर उसके प्रथम समयसे लेकर ऊपर आयुके सब समयों में परिणाम योगस्थान होता है। तथा सब समयोंमें उत्कृष्ट भी होता है और जघन्य भी होता है। तथा लब्ध्यपर्याप्तककी अपनी स्थिति श्वासके अठारहवें भाग प्रमाण है। उसके अन्तिम त्रिभागके पहले समयसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त सब स्थितिके समयोंमें उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान भी होता है और जघन्य परिणाम योगस्थान भी होता है । पर्याप्त ३० और अपर्याप्त दोनों ही प्रकारके जीवोंके वे सब परिणाम योगस्थान घोटमान योग ही होते हैं क्योंकि ये घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं और जैसेके तैसे भी रहते हैं ॥२२१॥ आगे एकान्तानुवृद्धि योगस्थानको कहते हैंक-३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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