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________________ ४३८ गो कर्मकाण्डे यिदं व्युच्छित्तियं पेन्दु सयोगायोगरोळं तदिएक्कं तदियेक्कमेदितु आवुदोंदु कथनमदेकजीवं प्रति साताऽसातंगळगऽन्यतरोदयव्युच्छित्तियागुत्तं विरलु सातदोडनागलसातदोडनागलि मेणु तीसं बारस एंबुदक्कुं । सातासातोदयंगळगे नानाजीवापेयि सयोगकेवलियोंदक्कं व्युच्छित्ति यिल्लेंदितल्लि सयोगायोगिगळोळुगुतीसतेरसुदयविही येदितु पेळल्पटुदु॥ किं । इंतागुत्तं विरलु नानाजीवंगळं ५ कुरुत्तु तदुभयोदयसंभवमप्पुरिदं प्राक्तनगुणस्थानदंत सयोगकेवलियोळमेकजीवं प्रति आ एरउर परावर्तनोदयशंके यावनोवनोळक्कुमदं निवारिसल्वेडियं पेळ्दपरु : णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्मि जदो । तेण दु सादासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं ॥२७३॥ नष्टौ च रागद्वेषौ इंद्रियज्ञानं च केवलिनि यतस्तेन तु सातासातजसुखदुःखं नास्तीद्रियजं १० केवलिनि ॥ सयोगकेवलिभट्टारकनोळु रागद्वेषौ नष्टौ रागद्वेषंगळेरडु नष्टंगळेके दोडे रागहेतुगळ मायाचतुष्कर्मु लोभचतुष्कमु वेदत्रितयमुं हास्यरति येंब त्रयोदशप्रकृतिगळं, द्वेषहेतुगळप्प क्रोधचतुष्कर्मुमानचतुष्कनुमरतिलोकभयजुगप्सेगळंब द्वादशप्रकृतिगळं निरवशेषमागि क्षपिसल्पटुवप्पु. दरिदं यिद्रियज्ञानं च नष्टं यिद्रियज्ञानमुं नष्टमादुदेके दोडे मतिश्रुतज्ञानंगळु परोक्षंगळु क्षायोपशमिकंगळप्पुरिदं युगपत्सकलाावभासिकेवलज्ञानोपयोगमुळ केवलियोनु परोक्षज्ञानंगळं क्षायोपयशस्कोतिः तीर्थकरत्वं मनुष्यायुः उच्चैर्गोत्रं चेति द्वादश एता व्युच्छित्तयो नानाजीवापेक्षयैवोक्ताः । सयोगायोगयोस्तु एक जीवं प्रति असाते साते वा व्युच्छिन्ने त्रिशत द्वादश नानाजीवं प्रति उभयच्छेदाभावात् एकान्नत्रिंशत् त्रयोदश ज्ञातव्याः ।। २७२ ॥ अथ पूर्वगुणस्थानवत् सयोगेऽप्येकजीवं प्रति तदुभयोदयो भविष्यतीति शंका निराकरोति यतः घातिकर्मविनाशात् सयोगकेवलिनि रागहेतुमायाचतुष्कलोभचतुष्कवेदत्रयहास्यरतोनां द्वेषहेतुक्रोधचतुष्कमानचतुष्कारतिशोकभयजुगुप्सानां च निरवशेषक्षयात् रागद्वेषौ नष्टौ । युगपत्सकलावभासिनि हैं । यह व्युच्छित्ति नाना जीवोंकी उपेक्षा कही है। सयोगी अयोगी गुणस्थानमें एक जीवकी अपेक्षा साता या असाताकी व्यु च्छित्ति कही है। अतः उनमें तीस और बारहकी व्यच्छित्ति एक जीवकी अपेक्षा कही है । नाना जीवोंकी अपेक्षा उनतीस और तेरहकी व्युच्छित्ति है ।।२७२।। २५ पूर्वके गुणस्थानोंकी तरह सयोगकेवलीमें भी एक ही जीवके साता और असाता दोनोंका उदय होगा, इस शंकाको दूर करते हैं क्योंकि संयोगकेवलीके घातिकर्मों का विनाश हो गया है अतः रागके कारण चार प्रकारकी माया, चार प्रकारका लोभ, तीन वेद, हास्य-रतिका तथा द्वेषके कारण चार प्रकार का क्रोध, चार प्रकारका मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका पूर्णरूपसे क्षय होनेसे ३. उनके राग और द्वेष नष्ट हो चुके हैं। तथा एक साथ सब पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानके प्रकट होनेपर परोक्ष तथा क्षायोपशमिक रूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्भव नहीं हैं ॥२७२।। .. अतः केवलीके इन्द्रियज्ञान भी नष्ट हो चुका है। इस कारणसे केवलीके साता और असाताके उदयसे उत्पन्न होने वाला सुख-दुःख नहीं होता; क्योंकि वह सुख-दुःख इन्द्रिय . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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